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श्राद्धविधि प्रकरण नौकर सुमित्र जब विद्याधर राजर्षिके उपदेशसे श्रावक हुवा था तब उसने अपने मनमें विचार किया कि, इस नगरमें श्रावकवर्ग में मैं अधिक गिना जाऊं तो ठोक हो, इस धारनासे वह अनेक प्रकारके कपटसे श्रावकपनका आडम्बर करता। सिर्फ इतने ही कपटसे वह स्त्री गोत्रांध कर मृत्यु पाके उस पूर्वभवके आचरित कपट भावसे यह तेरी प्रीतिमति रानी हुई है । धिःकार है अज्ञानता को कि जिससे मनुष्यके हृदयमें हिताहितके विचारको अवकाश नहीं मिलता। इसने सुमित्रके भवमें प्रथम यह विचार किया था कि, जबतक मेरी स्त्रीको पुत्र न हो तबतक मेरे दूसरे लघु बान्धवोंके घर पुत्र न हो तो ठीक हो। मात्र ऐसा विचार करनेसे ही उसने अन्तराय कर्म उपार्जन किया था वह कर्म इस भवमें उदय आनेसे इस प्रीतिमति रानीको सर्व रानियों से पीछे पुत्र हुवा है । क्योंकि यदि एक दफा भी विचार किया हो तो उसका उदय भी अवश्य भोगना पड़ता है । यदि साधारण विचार करते हुये भी उसमें तीव्रता हो जाय और उसकी अनुमोदना की जाय तो उससे निकाचित कर्म बन्ध होजाता है । उससे इसका उदय कदापि बिना भोगे नहीं छूटता। एक दफा नवमें सुविधिनाथ तीर्थंकर को बन्दन करने गये हुए धन्ना नामक देवताने ( जिस धन्नाने कमल चढ़ाया था) प्रश्न किया कि मैं यहांसे च्यवकर कहां पैदा होऊंगा? उस वक्त सुविधिनाथ तीर्थंकरने तुम्हारे दोनोंका पुत्र होनेका बतलाया। धन्ना देवने बिचार किया कि, राज्यन्धर राजा और प्रीतिमति रानी ये दोनों बिना पुण्य पुत्ररूप संपदा कैसे पायेंगे? यदि कुवेमें पानी हो तो हौदमें आवे, वैसे ही यदि धर्मवन्त हो तो उसके प्रभावसे उसे पुत्रप्राप्ति हो और मैं भी वहां उत्पन्न होऊंगा तब मुझे भी बोधिबीज की प्राप्ति होगी। मनमें यह विचार कर धन्नादेव स्वयं हंसशिशु का रूप बना कर प्रीतिमति रानीको स्वप्नमें धर्मका उपदेश कर गया। इससे यह तेरी रानी और तू, दोनों धर्मवान् हुवे हो । अहो ! आश्चर्य कि यह जीव कितना उद्यमी है कि जिसने देवभवमें भी अपने परभवके लिए बोधिबीज प्राप्तिका उद्यम किया। इससे विपरीत ऐसे भी अज्ञानी प्राणी हैं कि जो मनुष्य भव पाकर भी चिन्तामणि रत्नके समान अमूल्य धर्मरत्नको प्रमादसे व्यर्थ खोते हैं। सम्यगृष्टि देवता धन्नाका जीव यह तुम्हारा पुत्र उत्पन्न हुवा है कि जिसके प्रभावसे रानीने श्रेष्ठ स्वप्न देखा और श्रेष्ठ मनोरथ भी इसीके प्रभावसे उत्पन्न हुये हैं। जैसे छाया कायाको; सती पतिको, चन्द्रकान्त चन्द्रमाको, ज्योति सूर्यको बिजली मेघको अनुसरती है, वैसे ही जिनभक्ति भी जीवके साथ आती है। कल जब तुम इस बालकको जिनमन्दिर में ले गये थे उस वक्त जिनेश्वरदेव को नमस्कार कराकर यह सब हंसका उपकार है इत्यादि जो रानीकी वाणी हुई थी वह सुनकर इसे तत्काल ही जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हुवा, उससे पूर्वभवमें जो धर्मकृत्य किये थे वे सब याद आनेसे वहांपर ही इसने ऐसा नियम लिया था कि, जबतक प्रतिदिन प्रभुका दर्शन न कर तबतक कुछ भी मुखमें न डालूंगा, इसी कारण इसने आज स्तनपान बन्द किया था। इस प्रकार जीवन पर्यन्त अरिहन्तकी साक्षी लिये हुए नियमको अपने मनसे पालनेका उद्यम किया परन्तु जब जो नियम लेता है तब उस नियमके फलकी अधिकता न लिएहुए नियमसे अनन्तगुणी होती है। धर्म दो प्रकारका होता है, एक नियम लिया हुवा और दूसरा वगैर नियमका । उसमें नियम रहित धर्म बहुतसे समय तक पालन किया हो तथापि वह किसीको फलदायक होता है और किसीको नहीं भी होता । दूसरा सनियम धर्म थोड़ा