________________
श्राद्धविधि प्रकरणं उसमें प्रथम दण्डकी प्रेरणा होती है, उसे बचनानुष्ठान समझना; और दण्डकी प्रेरणा हुये बाद तुरन्त ही चक्रमेंसे दण्ड निकाल लेनेपर जो चक्र भ्रमण किया करता है उसमें अब कुछ दण्डका प्रयोग नहीं है, उसे असंगानुष्ठान कहते हैं । ऐसे किसी भी वस्तुकी प्रेरणासे जो क्रिया की जाती है उसे बचनानुष्ठान में गिनते हैं और पूर्व प्रयोगके सम्बन्धसे बिना प्रयोग भी जो अन्तरभाव रूप क्रिया हुवा करती है उसे असंगानुष्ठान समझना । इस प्रकार ये दो अनुष्ठान पूर्वोक्त दृष्टान्तसे भिन्न २ समझ लेना । बालकके समान प्रथमसे प्रीति भाव आनेसे प्रथम प्रीतिअनुष्ठान होता है, फिर भक्तिअनुष्ठान, फिर बचनानुष्ठान, और बादमें असंगानुष्ठान होता है। ऐसे एक २ से अधिक गुणकी प्राप्ति होनेसे अनुष्ठान भी क्रमसे होते हैं। इसलिए चार प्रकारके अनुष्ठान पहले रुपयेके समान समझना । विधि और बहूमान इन दोनोंके संयोगसे अनुष्ठान भी समझना चाहिये इसलिए मुनि महाराजोंने यह अनुष्ठान परम पद देनेका कारण बतलाया है । दूसरे भंगके रुपयेके समान (सची चांदी परन्तु खोटा सिक्का) अनुष्ठान भी सत्य है, इसलिए पूर्वाचार्योंने उसे सर्वथा दुष्ट नहीं गिनाया । शानवन्त पुरुषोंकी क्रिया यद्यपि अतिवारसे मलिन हो तथापि वह शुद्धताका कारण है। जैसे कि रत्न पर मैला चढा हो परन्तु यदि वह अन्दरसे शुद्ध है तो बाहरका मैल सुखसे दूर किया जा सकता है। तीसरे भंग सरीखी क्रिया (सिक्का सच्चा परन्तु बांदी खोटो ) माया, मृषादिक दोषसे बनी हुई है। जैसे कि, भोले लोगोंको ठगनेके लिए किसी धूर्तने साहुकार का वेष पहनकर बंचना जाल बिछाई हो, उसकी क्रिया बाहरसे दिखाव में बहुत ही आश्चर्य कारक होती है, परन्तु मनमें अध्यवसाय अशुद्ध होनेसे कदापि इस लोकमें मान, यश, कीर्ति, धन, वगैरहका उसे लाभ हो सकता है परन्तु वह परलोकमें दुर्गतिको ही प्राप्त होता है, इसलिये यह क्रिया बाहरी दिखाव रूप ही होनेसे ग्रहण करने योग्य नहीं है । चौथे भंग जैसी क्रिया (जिसमें चांदी और सिक्का दोनों खोटे हों) प्रायः अज्ञानपन से, अश्रद्धापन से, कर्मके भारीपन से, चोठानिया रससे कुछ भी ओछा न होनेके कारण भवाभिनन्दी जीवोंको ही होती है। यह क्रिया सर्वथा अग्राह्य है। शुद्ध और अशुद्ध दोनोंसे रहित क्रिया आराधना विराधना दोनोंसे शून्य है, परन्तु धर्मके अभ्यास करनेसे किसी वक्त शुभ निमित्ततया होती है। जैसे कि किसी श्रावकका पुत्र बहुत दफा जिनबिम्ब के दर्शन करनेके गुणसे यद्यपि भवमें उसने कुछ सुकत न किया था तथापि मरण पाकर मत्स्यके भवमें समकित को प्राप्त किया। - ऊपर बतलाई हुई रीति मुजब एकाग्र चित्तसे बहुमान पूर्वक और विधि सहित देवकी पूजा की जाय तो यथोक्त फलकी प्राप्ति होती है, इसलिये उपरोक्त कारणमें जरूर उद्यम करना । इस विषय पर धर्मदत्त राजाकी कथा बतलाते हैं।
"विधि और बहुमानपर धर्मदत्त नृप कथा" : दैदीप्यमान सुवर्ण और चांदीके मन्दिर जिस नगरमें विद्यमान हैं उस राजपुर नामक नगरमें प्रजाको मान्द देनेवाला चन्द्रमाके समान राज्यन्धर नामक राजा राज्य करता था। उस राजाको देवांगनाके समान स्पासली पाणिग्रहण की हुई प्रीतिमती आदि पांचसौ रानियां थीं, राजाकी प्रीतिमती रानी पर अति प्रीति होनेखा प्रीतिमती का नाम सार्थक हुवा था परन्तु वह संतति रहित थी। दूसरी रानियोंको एक २ पुत्ररत की