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श्राद्धविधि प्रकरणं पूजा करनेसे मन शांत होता है, मन शांत होनेसे उत्तम ध्यान होता है और उत्तम ध्यानसे मोक्ष मिलता है, तथा मोक्षमें निर्बाधित सुख है।
पुप्पाघर्चा तदाज्ञा च । तद्रव्य परिरक्षण।
उत्सवा तीर्थयात्रा च । भक्तिः पंचविधा जिने ॥६॥ पुष्पादिकसे पूजा करना, तीर्थंकरकी आशा पालना, देव द्रव्यका रक्षण करना, उत्सव करना, तीर्थ यात्रा करना, ऐसे पांच प्रकारसे तीर्थंकरकी भक्ति होती है।
"द्रव्यस्तवकेदो भेद" (१) आभोग-जिसके गुण जाने हुये हों वह आभोग द्रव्य स्तव, अनाभोग जिसके गुण परिचित न हों तथापि उस कार्यको किया करना, उसे अनाभोग द्रव्यस्तव कहते हैं। इस तरह शास्त्रोंमें द्रव्य स्तवके भेद कहे हैं तदर्थ कहा है कि,
देवगुण परित्राणी। तभ्भावाणुगयमुत्तमं विहिणा ॥ पायारसार जिणापूअणेण आभोग दव्यथयो॥१॥ इत्तोचरित लाभो। होइ लहूसयल कम्म निद्दलणो।
एत एथ्य सम्ममेवहि, पयदियव्वं सुदिठ्ठीहि ॥ २। वीतरागके गुण जानकर उन गुणोंके योग्य उत्तम विधिसे जो उनकी पूजा की जाती है वह आभोग द्रव्य स्तव गिना जाता है । इस आभोग द्रव्यस्तवसे सकल कर्मोंका निर्दलन करने वाले चारित्रकी प्राप्ति होती है। इसलिये आभोग द्रव्य स्तव करनेमें सम्यक्ष्टि जीवोंको भली प्रकार उद्यम करना चाहिये ।
पूमा विहिविरहाभो। अन्नाणामो जि गयगुणाणं ॥ सुहपरिणाम कयत्ता। एसोणा भोग दव्लथवो.॥३॥ गुणठाण ठाणगत्ता। एसो एवंप गुणकरो चेव ॥ सुहसुहयरभाव। विसुद्धिहेउमओ बोहिलाभाओं ॥४॥ असुहरुखएणधाणि। धन्नाणं आगपेसि भदाणं ।
अमुणिय गुणे विनूणं विसए पीइ समुच्छलई ॥५॥ जो पूजाका विधि नहीं जानता और शुभ परिणामको उत्पन्न करने बाले जिनेश्वर देवमें रहे हुये गुणके समुदायको भी नहीं जानता ऐसा मनुष्य जो देखा देखी जिन पूजा करता है उसे अनाभोग द्रव्यस्तव कहते हैं। यद्यपि अनाभोग द्रव्यस्तव मिथ्यात्वका स्थानक रूप है तथापि शुभ शुभतर परिणाम की निर्मलता का हेतु होनेसे किसी वक्त बोधि लाभकी प्राप्तिका कारण होता है। अशुभ कर्मका क्षय होनेसे आगामी भवमें मोक्ष पाने वाले कितनेक भव्य जीवोंको वीतरागके गुण मालूम नहीं तथापि किसी तोतेके युग्मको जिनबिम्व पर प्रेम उत्पन्न हुवा वैसे गुणपर प्रेम उपजता है।