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श्राद्धविधि प्रकरण - हरएक धर्मानुष्ठान अपनी शक्तिके अनुसार यथा बिधिकरके अन्तम भूलसे हुई अविधि आशातनाका दोष निवारणाथ 'मिच्छामि दुक्कड' देना चाहिए जिससे उसका विशेष दोष नहीं लगता।
'तीन प्रकारकी पूजाका फल" .. विग्यो वसामिगेगा । अभ्भुदय पसाहणी भवे बीमा ॥
निव्वई करणो तइया । फलामो जहथ्थ नाहि ॥१॥ पहली अंगपूजा, विघ्नोपशामिनी-विघ्न दूर करने वाली, दूसरी अग्रपूजा अभ्युदय देनेवाली और तीसरी भावपूजा-निवृत्तिकारिणी-मोक्षपद देने वाली, इस प्रकार अनुक्रमसे तीनों पूजाका फल यथार्थ समझना चाहिये। - यहांपर पहले कहे गये हैं कि,-अंगपूजा, अग्रपूजा, मन्दिर बनवाना; बिम्ब भरवाना, संघयात्रा, आदि करना, यह समस्त द्रव्य-स्तव है । इसके बारेमें शास्त्र में लिखा है कि,
जिणभवणविम्बठावण । जत्ता पूमाई सुत्तमो विहिणा ॥
दव्वथ्थ मोत्तिनेयं । भावथ्थय कारणरोण ॥१॥ ' सूत्रमें बतलाई हुई विधिके अनुसार मन्दिर बनवाना, जिनविम्ब भरवाना, प्रतिष्ठा स्थापना कराना, तीर्थ यात्रा करना, पूजा करना, यह सब द्रव्य स्तव जानाना, क्योंकि ये सब भावस्तवके कारण हैं, इसलिए द्रव्यस्तष गिना जाता है।
‘णि चिम संपुन्ना । जइविहु एसा न तीरए काउं॥
तहवि अणु चिठ्ठि अव्वा । अख्खय दीवाई दाणेण ॥२॥ यदि प्रतिदिन संपूर्ण पूजा न की जा सके तथापि उस २ दिन अक्षत पूजा, दीप पूजा, करके भो पूजाका आचरण करना।
एगंपि उदग विन्दुए। जहपखिला पहासमुद्दम्मि ॥
जायई अख्खायपेवं । पूाविहु वीयरागेसु ॥३॥ यदि महासमुद्र में पानीका एक विन्दु डाला हो तो वह अक्षयतया रहता है वेसे हो वोतराग को पूजा भी यदि भावसे थोड़ी ही की हो तथापि लाभकारी होती है।
एएणं वीएणं दुःखाई अयाविउण भवगहणे ॥
अञ्चन्तदारभोए। भोत्तु सिमझन्ति सन्न जीया ॥४॥ - इस जिन पूजाके कारणसे संसाररूप अटवीमें दुःखादिक भोगे बिना ही अत्यन्त स्त्री-भोग भोगकर लः जीव सिद्धिको पाते हैं।
पूमाए मणसन्ती। मणसन्तीए म उत्तमममाणं ॥ सुह झाणेणयमुक्खो.। मुख्खे सुख्खं निराबाहं ॥४॥