________________
श्राद्धविधि प्रकरण
है। एक दफा देव बन्दन करे तब उसमें दो दफा शक्रस्तव आवे एक प्रथम और एक अन्तिम ऐसे सब मिलाकर चार शक्रस्तव होते हैं, दो दफा ऐसा करनेसे तो आठ शक्रस्तव आते हैं, परन्तु चार ही गिने जाते हैं। इसप्रकार चैत्यबन्दन करनेसे उत्कृष्ट चैत्यवन्दन किया कहा जाता है। शक्रस्तव कहना, तथा ईर्यावहि पडिकमके एक शक्रस्तव करे, जहां दो दफा चैत्यवन्दना करे वहां तीन शक्रस्तव होते हैं । फिरसे चैत्यबन्दन कहकर 'नमुथ्थुणं' कहकर अरिहन्त चेइयाणं कहकर चार थुई कहे; फिर चैत्यबन्दन नमुथ्थुणं' कहकर चार थूई कहकर बैठकर 'नमुथ्थुर्ण' कहकर तथा स्तवन कहकर जयवियराय कहे ऐसे पांच शक्रस्तव होनेसे उत्कृष्ट चैत्यवन्दना कहाती है । साधुको महानीषीथ सूत्रमें प्रतिदिन सात वार चैत्यबन्दन करना कहा है, वैसे ही श्रावकको भी सातवार करनेका भाष्यमें कहा है सो बतलाते हैं:पडिक्कमणे चेइय जिमण, चरिम पडिक्कपण सुनण षडिबोहे ॥ चे वंदन इयजइणो, सत्तवेला अहोरतो ॥ १ ॥ पक्किमण गिहिणो बिहू, सगबेला पंचवेल इयरस्स ॥ पूासु अतिसंभमासु, होइ तिवेला जहन्नेां ॥ २ ॥
(१) राई प्रतिक्रमण (२) मंदिरमें; (३) भोजन पहले, ( गोचरी आलो ना करने की ) ( ४ ) दिवस मिकी (५) देवसि प्रतिक्रमणमें, (६) शयन के समय संथारा पोरसि पढानेकी ( ७ ) जागकर, ऐसे प्रतिदिन साधुको सात दफा चैत्यबन्दन करना कहा है एवं श्रावकको भी नीचे लिखे मुजब सात बार ही समझना । जो श्रावक दो दफा प्रतिक्रमण करने वाला हो उसे पूर्वोक रीतिसे अथवा दो वखतके आवश्यक के सोने जागनेके तथा त्रिकाल देववंदनके मिलाकर सात दफा चैत्यबन्दन होते हैं। यदि एक दफा प्रतिक्रमण करने वाला हो तो उसे छह चैत्यवन्दन होते हैं, सोनेके समय न करे उसे पांच दफा होते हैं, और यदि जागनेके समय भी न करे तो उसे चार होते हैं। बहुतसे मन्दिरोंमें दर्शन करने वालेको बहुतसे चैत्यवन्दन हो जाते ह। जिससे अन्य न बन सके तथा जिन पूजा भी जिस दिन न होसके उस दिन भी उसे त्रिकाल देव बन्दन तो करना ही चाहिए | श्रावकके लिए आगममें कहा है कि
भोभो देवाप्पा जप भिदए । जावज्जीवं तिक्कालिग्र अव्विरुखत्ता चलेगग्गचित्रेणं ॥ चेदए बंदिश्रव्वे हणमेव कोमणभत्ता असह प्रसासय खणभंगराम्रो सारन्ति । तथ्य पुव्वएहेत व उदग पाणं न कायव्वं ॥ जाव चेइए साहुअन वंदिएत्तहा मझ्झणे । ताव असण करिअ न कायव्वं जाव चेइह न बन्दिए तहा अवरणे चैव तहा । कायव्वं जहा श्रवन्दिएहि चइएहिंतो सिज्जालय मइक्कमिज्जइति ॥
हे देवताओंके प्यारे ! आजसे लेकर जीवन पर्यन्त त्रिकाल अचूक, निश्चल, एकाग्रचित्तसे, देव बंदन करना हे प्राणियों ! इस अपवित्र, अशाश्वत, क्षणभंगूर, मनुष्य शरीरसे इतना ही सार है। पहले पहोर में जबतक देव और साधुको बन्दन न किया जाय बतक पानी भी न पीना चाहिये । एवं मध्यान समय जबतक देव बन्दन न किया हो तबतक भोजन भी न करना तथा पिछले प्रहरमें जबतक देव बंदन न किया हो तबतक रात्री में शय्या पर न सोना चाहिये ।