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श्राद्धविधि प्रकरणं गन्नेका रस, दूध, दहि, सुगंधी जल, इस पंचामृतसे अभिषेक करना । प्रक्षालन करते हुये बीचमें धूप देना
और भगवानका मस्तक फूलोंसे ढक रखना परन्तु खुला हुवा न रखना । इसलिए वादी वैताल श्री शांतिसूरिने कहा है कि:-"स्नात्र जलकी धारा जबतक पडती रहे तबतक मस्तक शून्य न रक्खा जाय, अतः मस्तक पर फूल ढक रखना।” स्नात्र करते समय चामर ढोलना, गीत बाद्य का यथाशक्ति आडम्बर करना । स्नात्र किये बाद यदि फिरसे स्नात्र करना हो तो शुद्ध जलसे पाठ उच्चारण करते हुए धारा देना।
अभिषेकतोयधारा । धारेव ध्यानमन्डलाग्रस्य ॥
भव भवनभित्ति भागान् । भूयोपि भिनत्त भागवती ॥१॥ ध्यान रूप मंडलके अग्रभागकी धाराके समान भगवानके अभिषेक जलकी धारा संसार रूप घरकी भित्तोंके भागको फिरसे भी भेद करे।" ऐसा कहकर धारा देना। फिर अंगलुहन कर विलेपन आभूषण वगैरहसे आंगीकी रचना करके पहले पूजा की थी उससे भी अधिक करना, सर्व प्रकारके धान्य पक्वान्न शाक विगय, घी, गुड, शक्कर, फलादि, बलिदान चढ़ाना । ज्ञानादि रत्नत्रयकी आराधनाके लिये अक्षतके तोन पुञ्ज करना । स्नात्र करनेमें लघु वृद्ध व्यवहार उल्लंघन न करना (वृद्ध पुरुष पहले स्नान करे फिर दूसरे सब करे और स्त्रियां श्रावकोंके बाद करें ) क्योंकि जिनेश्वर देवके जन्माभिषेक समय भी प्रथम अच्युतेन्द्र फिर यथानुक्रमसे अन्तिम सौधर्मेन्द अभिषेक करता हैं । स्नात्र हुये बाद अभिषेक जल शेषके समान मस्तक पर लगाये तो उसमें कुछ भी दोष लगनेका संभव नहीं। जिसके लिए श्री हेमचंदाचार्यने श्री वीर चारित्रमें कहा है कि, देव मनुष्य, असुर और नागकुमार देवता भी अभिषेक जलको बंदना करके हर्षसहित बारम्बार अपने सर्व अंगमें स्पर्श कराते थे। ___ पद्मप्रभु चारित्रके उन्नीसवें उद्देश्यमें शुक्ल अष्टमीसे आरम्भ कर दशरथ राजाने कराये हुवे अष्टान्हिका अठाई महोत्सवके अधिकारमें कहा है कि:-वह न्हवन शांति जल, राजाने अपने मस्तक पर लगाकर फिर वह तरुण स्त्रियोंके द्वारा अपनी रानियोंको मेजवाया। तरुण स्त्रियोंने बृद्ध कंचुकीके साथ भिजवानेसे उसे जाते हुए देरो लगनेके कारण पट्टरानियां शोक और क्रोधको प्राप्त होने लगीं, इतनेमें बड़ी देरमें भो वृद्ध कंचुकीने नमण जल पटरानियोंको लाकर दिया और कहने लगा कि मैं वृद्ध हूं इसीसे देर लगी अतः माफ करो। तदनन्तर पटरानियोंने वह शांति जल अपने मस्तक पर लगाया इससे उनका मान रूपी अग्नि शान्त होगया और फिर हृदयमें प्रसन्न भावको प्राप्त हुई।
तथा बडी शन्तिमें भी कहा है कि, 'शान्ति पानीयं मस्तके दातव्यं शांति जल मस्तक पर लगाना और भी सुना जाता है कि, जरासंध वासुदेव द्वारा छोडी हुई जराके उपद्रवसे अपने सैन्यको छुडानेके लिये श्रीनेमिनाथके वचनसे श्रीकृष्ण महाराजने अट्ठमके तप द्वारा आराधना करके धरणेद्रके पाससे पाताललोकमेसे श्रीपार्श्वनाथकी प्रतिमा संखेश्वर गांवमें मंगाई और उस प्रतिमाके स्नात्र जलसे उपद्रव शांत हुआ, इसीलिये वह प्रतिमा आज भी श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ इस नामसे संखेश्वर गांवमें प्रसिद्ध है । इसलिए सद्गुरु प्रतिष्ठित बडे मोत्सवके साथ लाये हुए हिरागल आदिके ध्वज पताकाको मन्दिरको तीन प्रदक्षिणा दिलाकर दिग्पा