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श्राद्धविधि प्रकरण लिप्त सूरि आदि पूर्व पुरुषोंने एकबार करनेकी आशा की है। परन्तु आज तो देखा देखीसे कराते हैं । . स्नात्र करने में सर्व प्रकारके विस्तारसे पूजा प्रभावनादि के संभवसे परलोकके फलकी प्राप्ति स्पष्टतया ही देखी जाती है। जिन जन्मादि स्नात्र चौसठ इन्द्र मिलकर करते थे, उनके समान हम भी करें तो उनके अनुसार किया हुवा कहा जाय। इससे इस लोक फलकी प्राप्ति भी जरूर होती है ।
"कैसी प्रतिमा पूजना?" प्रतिमा विविध प्रकारकी होती हैं, उनके भेद-पूजाविधि सम्यक्त्व प्रकरणमें कहे हैं।
गुरुकारि पाई कई, अन्नेसयकारि आईतविति ॥
विहिकारि आइ अन्ने, परिमाए पूअण विहाणं॥१॥ कितने आचार्य यों कहते हैं कि, गुरु करिता,-"गुरु याने माता, पिता दादा, परदादा आदि उनकी कराई हुई प्रतिमा पूजना" कितनेक आचार्य ऐसा कहते हैं कि, "स्वयं विधि पूर्वक प्रतिमा बनवाके प्रतिष्ठा कराकर पूजना" और भी कितनेक आचार्य ऐसा कहते हैं कि, 'विधिपूर्वक जिसकी प्रतिष्ठा हुई हो ऐसी प्रतिमाकी पूजा करना, ऐसी प्रतिमाकी पूजा करनेकी रीतिमें बतलाई हुई विधिपूर्वक पूजा करना।
माता पिता द्वारा बनवाई हुई प्रतिमाकी ही पूजा करना वित्तमें ऐसा विचार न करना । ममत्व या आग्रह । रखकर अमुक ही प्रतिमाकी पूजा करना ऐसा आशय न रखना चाहिये। जहां जहां पर सामाचारी की प्रभुमुद्रा देखनेमें आवे वहां वहां पर वह प्रतिमा पूजना । क्योंकि सब प्रतिमाओंमें तीर्थंकरोंका आकार दीखनेसे परमेश्वरकी बुद्धि उत्पन्न होती है। यदि ऐसा न हो तो हठवाद करनेसे अर्हन्तबिम्बकी अवगणना करनेसे अनन्त संसार परिभ्रमण करनेका दंड उस पर बलात्कारसे आ पड़ता है। यदि किसीके मनमें ऐसा विचार आवे कि, अविधिकृत प्रतिमा पूजनेसे उलटा दोष लगता है, तथापि ऐसी धारना न करना कि अविधिकी अनुमोदनाके प्रकारसे आज्ञाभंग का दोष लगता है। अविधिकृत प्रतिमा पूजनेसे भी कोई दोष नहीं लगता, ऐसा आगममें लिखा हुवा है । इस विषयमें कल्पव्यवहार भाष्यमें कहा है कि,
निस्सकड मनिस्सकडे, चेइए सव्वेहि थुइ तिन्नि
__ वेलं च केई प्राणिय, नाउं इक्किक्कि आवाबि ॥१॥ निश्राकृत याने किसी गच्छका चैत्य, अनिश्राकृत बगैर गच्छका सर्व साधारण चैत्य, ऐसे दोनों प्रकारके चैत्य याने जिनमन्दिरोंमें तीन स्तुति कहना । यदि ऐसा करते हुये बहुत देर लगे या बहुतसे मन्दिर हों और उन सबमें तीन २ स्तुति कहनेसे बहुत देर लगती हो और उतनी देर न रहा जाय तो एक २ स्तुति कहना । परन्तु जिस २ मन्दिरमें जाना वहांपर स्तुति कहे बिना पीछे न फिरना, इसलिये विधिकृत हो या न हो परन्तु पूजन जरूर करना।
"मन्दिरमेंसे मकड़ीका जाला काढनेके विषयमें" सीलह मंख फलए, इअर चोइन्ति तं तुमाइसु। अभिभोइन्ति सविचिसु, अणिथ्य फेडन्त दीसन्ता ॥२॥