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श्राद्धविधि प्रकरण . जिस मन्दिरकी सार संभाल करने वाला श्रावक आदि न हो, उस मन्दिरको असविद्य, देव, कुलिका कहते हैं । उसमें यदि मकडीने जाला पूरा हो, धूल जम गई हो तो उस मन्दिरके सेवकोंको साधु प्रेरणा करे कि.मंख चित्रकी पट्टियां सन्दूकडीमें रखकर उन वित्र पट्टियोंको बच्चोंको दिखला कर पैसा लेने वाले लोगोंके समान उनके चित्र पट्टियोंमें रंग विरंगा विचित्र दिखाव होनेसे उनकी आजीविका अच्छी चलती है वैसे ही यदि तुम लोग मन्दिरकी सार संभाल अच्छी रखकर वोंगे तो तुम्हारा मान-सत्कार होगा। यदि उस मन्दिरके नौकर मन्दिरका वेतन लेते हों या मन्दिरके पीछे गांवकी आय खाते हों या गांवकी तरफसे कुछ लाग बन्धा हुवा हो या उसी कार्यके लिये गांवकी कुछ जमीन भोगते हों तो उनकी निर्भत्सना भी करे । (धमकाये ) कि, तुम मन्दिरका वेतन खाते हो या इसी निमित्त अमुक आय लेते हो तथापि मन्दिरकी सार संभाल अच्छी क्यों नहीं रखते ? ऐसे धमकानेसे भी यदि वे नौकर मन्दिरकी सार संभाल न करें तो उसमें देखनेसे यदि जीव मालूम न दे तो मकड़ीका जाला अपने हाथसे उखेड डाले, इसमें उसे कुछ दोष नहीं।
इसप्रकार विनाश होते हुये चैत्यकी जब साधु भी उपेक्षा नहीं कर सकता तब श्रावककी तो बात ही क्या ? ( अर्थात्-श्रावक प्रमुखके अभावमें जब साधुके लिए भी मन्दिरकी सार संभाल रखनेकी सूचना की गई है। तब फिर श्रावकको तो कभी भी वह अपना कर्तब्य न भूलना चाहिये ) यथाशक्ति अवश्य ही मन्दिरको सार संभाल रखनी चाहिये । पूजाका अधिकार होनेसे ये सब कुछ प्रसंगसे बतलाया गया है ।
उपरोक्त स्नात्रादिकी विधिका विस्तार धनवान श्रावकसे ही बन सकता है; परन्तु धन रहित श्रावक सामायिक लेकर यदि किसीके भी साथ तकरार आदि या सिरपर ऋण (कर्ज) न हो तो ईर्यासमिति आदिके उपयोग सहित साधुके समान तीन नि:सिहि प्रमुख भाव पूजाकी रीत्यानुसार मन्दिर आवे। कदाचित् वहां किसी गृहस्थका देव पूजाकी सामग्री सम्बन्धी कार्य ही तो सामायिक पार कर वह फूल गूंथने आदिके कार्यमें प्रवर्ते । क्योंकि ऐसी द्रव्यपूजाकी सामग्री अपने पास न हो और गरीबीके लिए उतना खर्च भी न किया जा सकता हो तो फिर दूसरेकी सामग्रीसे उसका लाभ उठावे । यदि यहांपर कोई ऐसा प्रश्न करे कि, सामायिक छोड़ कर द्रब्यस्तव करना किस तरह संघटित हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि, सामायिक उसके स्वाधीन है उसे जब चाहे तब कर सकता है। परन्तु मन्दिरमें पुष्प आदि कृत्य तो पराधीन है, वह सामु. दायिक कार्य है, उसके स्वाधीन नहीं एवं जब कोई दूसरा मनुष्य द्रव्य खर्च करने वाला हो तब ही बन सकता है। इसलिए सामायिक से भी इसके आशयसे महालाभ की प्राप्ति होनेसे सामायिक छोड़कर भी द्रव्यस्तषम प्रवर्त्तनेसे कुछ दोष नहीं लगता। इसलिये शास्त्र में कहा है कि:
जीवाणं बोहिलामो। सम्पदीठठीणा होई पीप्रकरणं ॥
पाणा जिणंदभत्ती। तिथ्थस्स पभावणा चेव ॥१॥ सम्यक्ष्टि जीवको बोधि बीजकी प्राप्ति हो, सम्यक्त्वको हितकारी हो, आज्ञा पालन हो, प्रभुकी भक्ति हो, जिनशासन की उन्नति हो, इत्यादि अनेक गुणोंकी प्राप्ति होती है। इसलिए सामायिक छोड कर भी द्रव्य स्तव करना चाहिये।