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श्राद्धविधि प्रकरण
१३१ सुप्पभाए समणो वासगस्स, पाणंवि न कथए पाऊं ॥ नो जाव चेइयाएहि, साहुवि अवन्दिया विहिणा॥१॥ पझ्झरहे पुणरवि, वन्दिउण नियमेय कप्पइ भोच॥
पुण वन्दिउण ताई, पोस समयंमि तो सुयइ ॥२॥ इन दो गाथाका अभिप्राय पूर्वोक्त मुजब होनेसे यहांपर नहीं लिखा। गीत, नृत्य, वाद्य, स्तुति तोत्र, ये अग्रपूजामें गिनाये हुए भी भाव पूजामें अवतरते हैं। तथा ये महा फलदायी होनेसे बने वहांतक स्वयं ही करना उचित है यदि ऐसा न बन सके तो दूसरेके पास कराने पर भी अपने आपको तथा दूसरे भी बहुतसे जीवोंको महालाभकी प्राप्ति होनेका संभव है। नीषीथ चूर्णीमें कहा है कि,___ "पभावइ न्हाया कय कौउयमंगल पायच्छित्ता सुकिल्लवासपरिहिआ जाच अमिचउदसीसुध भतिराएण सयमेव रामो नट्टोवयारं करेइ । रायावि तयाणुवित्तिए मुरयंवाएई इति ।
स्नान किये बाद कौतुक मंगल करके प्रभावती रानी सुफेद वस्त्र पहिन कर यावत् अष्टमी चौदसके दिन भक्तिरागसे स्वयं नाटक करती और राजा भी उसकी मर्जीके अनुसार होनेसे मृदंग बजाता। जिन पूजा करनेके समय अरिहन्तकी छद्मस्थ केवली और सिद्ध इन तीन अवस्थाओंकी भावना भाना। इसके लिए भाष्यमें कहा है कि,
न्हवणञ्चगेहिं छनमथ्था। वत्था पडिहारगेहिं केवलिम ॥
पालिनं कुस्सगेहिन । जिणस्स भाविज सिद्धत्त ॥१॥ भगवन्तके स्नान कराने वालेको भगवानके पास रहे हुये परिकर पर घडे हुए हाथी पर चढे हुए देवके हाथमें रहे हुये कलशके दिखावसे तथा परिकरमें रहे हुये मालाधारी देवके रूपसे, भगवन्तकी छमस्था. वस्थाकी भावना भाना। (छमस्थावस्था याने केवलज्ञान प्राप्त करनेसे पहली अवस्था) छमस्थावस्था तीन प्रकारकी है । (१) जन्मकी अवस्था, (२) राज्य अवस्था, (३) साधुपनकी अवस्था। उसमें स्नान करते समय जन्मावस्थाकी भावना भाना, मालाधारक देवताके रूप देखकर पुष्पमाल पहिनानेके रूप देखनेसे राज्यावस्थाकी भावना भाना और मुकट रहित मस्तक हो उस वक्त साधुपनकी अवस्थाकी भावना करना। प्रतिहार्यमें परिकरके ऊपरी भागमें कलशके दो तरफ रहे हुये पत्रके आकारको देखकर कल्पवृक्ष भावना, मालाधारी देवके दिखावसे पुष्पवृष्टी भाव भाना। प्रतिमाके दो तरफ रहे हुये दोनों देवताओंके हाथमें रही हुई बंसी वीणाके आकारको देख दिव्यध्वनिको भावना करना । मालाधर देवके दूसरे हाथमें रहे हुये चामरको देखकर चामर प्रातिहार्यकी रचनाका भाव लाना। ऐसे ही दूसरी भी यथा योग्य सर्व भावनाय प्रकटतया ही हो सकती हैं। इसलिए चतुर पुरुषको वैसी ही भावनायें भाना।
पंचोवयार जुत्ता। पुमा अट्ठी वयर कलिवाय॥ रिद्धि विसेसेण पुणो। नेयासव्वो वयारावि ॥१॥ तहि पंचुवयारा । कुसुमख्खय गंधधूव दीहि,