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श्राद्धविधि प्रकरण
जहसन्ति चित्त, थुमाइणा देवबन्दराय ॥ १॥
तीसरी भावपूजामें चैत्य वन्दन करनेके उचित प्रदेशमें - अवग्रह रखके बैठकर यथाशक्ति स्तुति, स्तोभ स्तवना द्वारा चैत्य वन्दन करे ।
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नीषीथ सूत्रमें कहा है कि : - " सोउ गंधार सावओो थय थुइए भरांतो तथ्य गिरि गुहाए ग्रहोरन्त निर्वासियो" वह गंधार श्रावक स्तवन स्तुतियें पढता हुवा उस गिरि गुफामें रात दिन रहा ।
बसुदेव हिंडमें भी कहा है कि
“वसुदेवो पच्चु से कयसमत्त सावय सामाइयाई नियमो गहिय पच्चरुखाखो कय काउस्सग्ग थुई वंदगोति” वसुदेव प्रातःकाल सम्यक्त्व की शुद्धि कर श्रावकके सामायिक आदि बारह व्रत धारण कर, नियम ( अभिग्रह ) प्रत्याख्यान कर काउस्सग, थूर, देव बन्दन, करके विचरता है। ऐसे अनेक श्रावकादिकोंने कायोत्सर्ग स्तुति करके चैत्य बन्दन किये हैं,
" चैत्य बन्दनके भेद"
जघन्यादि भेदसे चैत बन्दनके तीन भेद कहे हैं । भाष्यमें कहा है कि:
नक्कारेण जहन्ना, चि वंदण मझ्मदंड थुइजुनला ॥
पणदण्ड थूइ चक्कग, थथप्पणिहाणेहिं उक्कोसा ॥ १ ॥
दो हाथ जोडकर 'नमो जिणास' कहकर प्रभुको नमस्कार करना, अथवा 'नमो अरिहंताण' ऐसे समस्त नवकार कहकर अथवा एक श्लोक स्तवन वगैरह कहनेसे जातिके दिखलानेसे बहुत प्रकारसे हो सकता है, अथवा प्रणिपात ऐसा नाम 'नमुथ्थुणं' का होनेसे एक वार जिसमें 'नमुथ्थुणं' आवे ऐसे चैत्यवंदन ( आजकल जैसे सब श्रावक करते हैं) यह जघन्य' चैत्यवन्दन कहलाता है ।
मध्यम चैत्यत्रन्दन प्रथमसे 'अरिहंत चेइयाण' से लेकर 'काउस्सग्ग' करके एक थूई प्रकटपन कहना, फिरसे चैत्यबन्दन करके एक थूई अन्तमें कहना यह जघन्य चैत्यचन्दन कहलाता है।
पंच दंडक, १ शक्रस्तव ( नमुथ्थुणं ) २ चैत्यस्तव ( अरिहंत चेहयाणं ), ३ नामस्तव ( लोम्स्स ) ४ श्रुतस्तव ( पुरुखर वरदी ), ५ सिद्धस्तव ( सिद्धाणं बुद्धाणं ), जिसमें ये पांच दंडक आव वियराय सहित प्रणिधान ( सिद्धान्तोंमें बतलाई हुई रीतिके अनुसार बना हुवा अनुष्ठान ) है चैत्यवन्दन कहते हैं ।
ऐसा जो जय उसे उत्कृष्ट
fate आचार्य कहते हैं कि - एक शक्रस्तवसे जघन्य चैत्यवन्दन कहलाता है और जिसमें दो दफा शक्रस्तव आवे वह मध्यम एवं जिसमें चार दफा या पांच दफा शक्रस्तव आवे तब वह उत्कृष्ट चैत्यवन्दन कहलाता है । पहले ईर्यावहि पडिकमके अथवा अन्तमें प्रणिधान जयवियराय, 'नमुथ्थुणं' कहकर फिर द्विगुण चैत्यवन्दन करें फिर चैत्यबन्दन कहकर 'नमुथ्थुणं' कहे तथा 'अरिहंतचेइयाणं' कहकर चार थूइयों द्वास देव बन्दन करे याने पुनः 'नमुथ्थुणं' कहे, उसमें तीन दफा 'नमुथ्थुणं' आवे तब वह मध्यम चैत्यवन्दना कहलाती
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