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श्राद्धविधि प्रकरण तो गंभु सहम्मसह, जिणेस कहा सण मि पणमिचा ।
उध्याडितुसमग्गे, पपज्जए लोमहथ्थेणं ॥१॥ सुरहि मलेणिगवीसं, वार पख्खालि आणु लिपित्ता। गोसीसचन्दणेणं, तो कुसमाइहिं अच्चइ ॥२॥ तो दार पडिमपूत्र, सहासु पंच सुवि करेइ पूव्वं च ॥
दारचणाइ सेसं, तइया उवंगांओ नायव्वं ॥३॥ सुधर्म सभामें जाकर वहाँ जिनेश्वर भगवानकी दाढोंको देखकर प्रणाम करके फिर डब्बा उघाड कर मयूर पिच्छिसे प्रमार्जन करे। फिर सुगंध जलसे इक्कीस दफा प्रक्षालन कर गोशीर्ष चंदन और फूलोंसे पूजा करे। ऐसे पांचों सभामें पूजा करके फिर वहांकी द्वार प्रतिमाकी पूजा करे, ऐसा जीवाभिगम सूत्र में स्पष्ट क्षरसे कहा है। इसलिए द्वारप्रतिमाकी पूजा सबसे अन्तिम करना, त्यों मूल नायककी पूजा सबसे पहले और सबसे विशेष करना। शास्त्रोंमें भी कहा है
उचित पूनाए, विरे.स करणं तु मूलविम्बस्स,
जंपडइ तथ्यपढम, जणस दिट्ठी सहमणेणां ॥१॥ पूजा करते हुये विशेष पूजा तो मूलनायक बिम्बकी घटती है क्योंकि, मन्दिर में प्रवेश करते ही सब लोगोंकी दृष्टि प्रथमसे ही मूलनायक पर पडती है, और उसी तरफ मनकी एकाग्रता होती है। 'मूलनायककी प्रथम पूजा करनेमें शंका करनेवालेका प्रश्न"
पुआ बंदणमाइ, काउणेगस्स सेस करणमि, नायक सेवक भावो, होइ को लोगनाहाणं ॥१॥ एग्गस्सायर सारा, कीरइ पूावरेसिं थोवयरी,
एसाविमहावना, लाख्खिज्जइ निउण बुद्धीहिं ॥२॥ · शंकाकार प्रश्न करता है कि, यदि मूलनायककी पूजा पहले करना और परिवारकी पोंछे करना ऐसा है तो सब तीर्थकर सरीखे ही हैं तब फिर पूजामें स्वामी-सेवक भाव क्यों होना चाहिये ? जैसे कि, एक बिम्बकी आदर, भक्ति बहुमानसे पूजा करना और दूसरे विम्बकी कम पूजा करना, यदि ऐसा ही हो तो यह बड़ी भारी आशातना है, ऐसा निपुण बुद्धिवालोंके मनमें आये बिना न रहेगा, ऐसा समझने बालोंको गुरु उत्तर देते हैं. "मूलनायककी प्रथम पूजा करनेमें दोष न दोनेके विषयमें उत्तर" .
नायक सेवक बुद्धी, न होइ एएस जाणगजणस्स, पिच्छंसस्स सपाणं, परिवारं पारिहेराई॥४॥ व्यवहारो पुण पढमं, पइठिो मूलनायगो एसो, अवणिज्जा सेसाणं नायगभावो निउणतेण ॥५॥