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श्राद्धविधि प्रकरण आजीविका करते हैं) में, छपन्न अतद्वीप मनुष्य (युगलिक), गर्भज, (गर्भ से उत्पन्न होने वाले ) मनुष्य के मल में, पेशाबमें, यूँक खंखारमें, नासिकाके श्लेष्ममें, वमनमें, मुखमें से पड़ने वाले पित्तमें, वीर्यमें, वीर्य और रुधिर एकत्रित हो उसमें, सुके हुये वीर्यमें या वीर्य जहां पर रहा हो उसमें, निर्जीव कलेवरमें, स्त्री पुरुषके संयोग में, नगरफी गटर में, मनुष्य संबंधी सर्व अपवित्र स्थानमें सन्मुच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। (धे कैसे पैदा होते हैं ? इसका उत्तर ) एक अंगुल के असंख्यभाग मात्र शरीरकी अवगाहना वाले असंगी (मनविनाके ), मिथ्यात्वी, अज्ञानी, सर्व पर्याप्तिसे अपर्याप्ता, और अंतर्मुहुर्त काल आयुष्य भोगकर मृत्यु पाने वाले ऐसे समुच्छिम जीव उपजते हैं। अतः खंखार, थूक, या श्लेष्म पर धूल या राख डालकर उसे जकर ढक देना उचित है।
दतवन करना सो भी निर्दूषण स्थानमें अचित्त और परिचित्त वृक्षका कोमल दतवन करके दांत दांढ दूर करने के लिए तर्जनी अंगुलिसे घिसना। जहांपर दांतका मैल डाले वहां उसपर धूल डालकर यतना पूर्वक ही प्रतिदिन दंतधावन करना। व्यवहार शास्त्रमें भी कहा है कि:
दंतदााय तर्जन्या। घर्षयेद्दतपीठिका ॥
भादावतः परं कुर्या । दंतधावनपादराव ॥१॥ दांत दूढ करनेके लिए दांत की पीठिका ( मसूडे ) प्रथम तर्जनी अंगुलिसे घिसना, फिर आदरपूर्वक दतवन करना।
"दतवन करते हुए शुभ सूचक अगमचेति" यद्याद्यवारिगंडूषा, बिंदुरेकः प्रधावति ॥
कंठे तदा नरैज्ञेय, शीघ्र भोजनमुत्तमं ॥२॥ दतवन करते समय जो पानीका कुल्ला किया जाता है उसमें पहला कुल्ला करते हुए यदि उसमें से एक बिन्दु गले में उतर जाय तो उस दिन उत्तम भोजन प्राप्त हो।
"दतवनका प्रमाण और उसके करनेकी रीति” . अवकाग्रंथिसकूच, सूक्ष्माग्रं च दशांगुलं ॥ कनिष्ठाग्रसमं स्थौल्य, ज्ञातवक्ष्यं सुभूमिजं ॥३॥ कनिष्ठिकानामिकबोरन्तरे दंतधावनं ।। प्रादाय दक्षिणां दंष्ट्रा वाया वा संस्पृशेत्तले ॥४॥ तल्लीनमानसः खस्यो, दन्तमांस व्यथा त्यजन् ॥ ... उत्तराभिमुखः माची, मुखो वा निश्चलासनः॥५॥ दन्तान मौनपरस्तेन, घर्षयेन्दर्जयेत्पुनः॥ दुर्गंधं शुषिर शुष्कं, खाम्लं लवणं च तत् ॥६॥