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श्राद्धविधि प्रकरण सरल गांठ रहित, जिसका कुंचा अच्छा हो सके पैसा, जिसकी अणत पतली हो, बस अगंल लंगा, अपनी कनिष्ठा अगुली जैसा मोटा, परिचित वृक्षका, अच्छी जमीनमें उत्पन्न हुये दत्वनसे कविष्ठा और देव पूजिनी अंगुलिके बीचमें रख कर पहले उपर की दाहिनी दाढ और फिर उपरकी काई वाढ को घिसकर फिर दोनों नीचे की दाढांओं को घिसना। उत्तर या पूर्व दिशाके सन्मुख स्थिर आसन पर दंचन करनेसे ही वित्त स्थापित कर दांत और मसूडों को कुछ पीड़ा न हों एवं मौन रहकर दतवनके कूचे से सूकी हुई लिस्सी स्वादिष्ट नमक या खट्टे पदार्थ से दांतोंके पोलारको घिसकर दांतके मैल या दुर्गन्धको दूर करना।
"दतवन न करनेके संबंधों व्यतिपाते रविवारे, संक्रांती ग्रहणे न तु ॥
दन्तकाष्ठ नवाष्टक, भूतपक्षात षडद्युषु ॥७॥ व्यतिपातको, रविवार को, संक्रांति के दिन, ग्रहण के दिन और प्रतिप्रदा, चौथ, अष्टमी, नवमी, पुनम अमावस्या, इन छह तिथियों के दिन दतवन न करना।
"विना दतवन मुख शुद्धि करनेकी रीति"
प्रभावे दंतकाष्ठस्य, मुखशुद्धिविधिः पुनः। कार्यों द्वादशगंडूष, जिव्होल्लेखस्तु सर्वदा॥८॥ विलिख्य रसनां जिह्वा, निलेखिन्याः शनैः शनैः।
शुचिप्रदेशे प्रक्षाल्य, दंतकाष्ठ पुरस्त्यजेत् ॥६॥ जिस दिन दतवन न मिले उस दिन मुखशुद्धि करनेका विधि ऐसा है कि, पानीके बाहर कुल्ले करना; और जीभका मैल तो जकर ही प्रतिदिन उतारना। जीभ परसे मैल उतारने की दतवन की चोर या बँतकी फाडसे जीभको धीरे २ घिस कर वह चीर या फाड़ अपने सन्मुख शुचिप्रदेशमें फेंकदेना ।
"दतवनकी चीरी फेंकनसे मालूम होनेवाली आगम चेती"
सन्मुखं पतितं स्वस्य, शांतानां ककुनांचतत् ॥ उद्धस्थ च सुखायस्या, दन्यथा दुखहेतवे ॥१०॥ उई स्थित्वा तणं पश्चा, पतत्येतद्यदा पुनः,
मिष्ठाहारस्तदादेश्या, स्तहिने शास्त्रकोविदः॥११॥ यदि वह फेंकी हुई दनवन की वीर अपने सन्मुख पड़े तो सर्व दिशाओंमें सुख शांति मिले। एवं वह जमीन पर खडी रहे तो सुख के लिए हो यदि इसके विरुद्ध हो तो दुःख प्रद समझना। यदि क्षणवार खड़ी रह कर फिर वह गिर जाय तो शास्त्र जाननेवालेको कहना चाहिये कि, आज उसे जरूर मिष्ट भोजन मिलेगा।