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श्राद्धविधि प्रकरण गभारेमें तीन दिशामें मूल नायकं के नामके बिम्ब प्रायः स्थापन किये होते हैं। और यदि ऐसा किया हुवा न हो तथापि अपने मनमें वैसी कल्पना करके मूल नायकके नामसे ध्यान करे। “वर्जयेदहेवपृष्ठ" ( अरिहन्तका पृष्ठभाग वर्जना ) ऐसा जो शास्त्र वाक्य हैं सो भी यदि भमतीमें तीन दिशाओंमें बिम्ब स्थापन किये हुए हों तो वह दोष चारों दिशाओंमें से दूर होता है।
- इसके बाद मन्दिरके नोकर चाकर मुनीम आदिकी तलाश करना ( इसकी रीति आगे बतलायेंगे)। यथोचित चितवन करके वहां से निवृत्त हुये बाद समग्र पूजाको सामग्री तैयार करना। फिर मन्दिर के कामकाज त्यागने रूप दूसरी "नि:सिही" मन्दिर के मूल मंडप में तीन दफा कहना। तदनंतर मूल नायकको प्रणाम करके पूजा करना ऐसा भाष्य में भी कहा है
तत्तो निसीहि आए । पबिसित्ता मंडवं मि जिपुणरो॥ पहिनिहि अजाणुपाणी। करेइ विहिणापणामतियं ॥१॥ तयणु हरिसुल्लसंतो । कयमुहकोसा जिणंदपडिमाणं ॥ अवणेई रयणिवसिग्रं। निम्मल्ल लोम हथ्थेणं ॥२॥ जिणगिह पमज्ज यंतो। करेइ कारेइ वावि अन्नाणं ॥
जिण बिंबाण पुअंतो। विहिणाकुणइ जहजोगं ॥ निःसीही कह कर मन्दिर में प्रवेश कर मूलमंडपमें पहुंच कर प्रभुके आगे पंचांग नमाकर विधिपूर्वक तीन दफा नमस्कार करे । फिर हर्ष और उल्हास प्राप्त करता हुवा मुखकोष बांधके जिनराजकी प्रतिमा पर पहले दिनके चढ़े हुये निर्माल्यको उतारे फिर मयूरपिच्छसे प्रभुकी परिमार्जना करे । फिर जिनेश्वरदेवके मन्दिरको परिमार्जना करे और दूसरेके पास करावे, फिर विधिपूर्वक यथायोग्य अष्ट पट मुखकोष बांध कर जिनबिम्बकी पूजा करे । मुखका श्वास, निश्वास दुर्गंध तथा नासिकाके श्वास, निःश्वास, दुर्गंध रोकनेके निमित्त अष्टपटआठ पडवाला मुखकोष बांधनेकी आवश्यकता है। जो अगले दिनका निर्माल्य उतारा हो वह पवित्र निर्जीव स्थानमें डलवाना । वर्षाऋतु में कुथु आदिकी विशेष उत्पत्ति होती हैं, इसलिए निर्माल्य तथा स्नात्र जल जुदे २ ठिकाने पवित्र जमीन पर डलवाना कि जिससे आसातनाका संभव न हो । यदि घर मंदिरमें पूजा करनी हो तो प्रतिमाको पवित्र उच्च स्थान पर विराजमान करके भोजन वगैरहमें न बर्ता जाता हो ऐसे पवित्र बरतनमें प्रभुको रख कर सन्मुख खडा रह कर हाथमें उत्तम अंतरासनके वस्त्रसे ढके हुए कलशको धारण कर शुभ परिणामसे निम्न लिखी गाथाके अनुसार चितवन करता हुआ अभिषेक करे।
बालत्तणंमिसामिन । सुपेरुसिहरंमि कणयकलसेंहि ॥
तिप्रसा सुरेहि न्हवीयो । ते धन्ना जेहिं दिठठोसि ॥ “हे खामिन् ! बाल्यावस्थामें सुन्दर मेरुशिखर पर सुवर्ण प्रमुख आठ जातिके कलशोंसे सुरेश्वरने (इंद्रने) आपका अभिषेक किया उस वक्त जिसने आपके दर्शन किये हैं वे धन्य हैं;" उपरोक्त गाथा बोल कर उसका अभिप्राय चितवन कर मौनतासे भगवंतका अभिषेक करना। अभिषेक करते समय अपने मनमें जन्माभिषेक ,