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श्राद्धविधि प्रकरण
१०५ "स्नान करनेकी आवश्यकता" रतेवांते चिताधूप, स्पर्श दुःस्वप्नदर्शने ;
तौरकर्मण्यपि स्नाया, दुगलितैः शुद्धवारिभिः॥६॥ ____ मैथुन सेवन किये बाद, वमन किये बाद, श्मशानके धूम्रका स्पर्श हुये बाद, खराब स्वप्न आने पर, और क्षौरकर्म ( हजामत किये ) बाद छाने हुये निर्मल पवित्र जलसे अवश्य स्नान करना।
"हजामत न करानके संबन्धमें" आश्यक्तस्नाताशित, भूषितयात्रारणोन्मुखैः क्षौरं ॥
विद्यादिनिशासंध्या, पर्यसु नवमेन्हो न कार्य च ॥१॥ तेलादि मर्दन किये बाद, स्नान किये बाद, भोजन किये बाद, वस्त्राभूषण पहने वाद, प्रयाण करनेके दिन संग्राममें जाते समय, विद्या, यंत्र, मंत्रादिके प्रारंभ करते समय, रात्रिके समय, संध्याके समय, पर्व के दिन और नवमें दिन क्षौरकर्म ( हजामत ) न कराना चाहिये।
कल्प्येदेकशः पते रोमस्मश्रुक चानखान् ॥
न चात्मदशनाण, स्वपाणिभ्यां च नोत्तमः॥२॥ उत्तम पुरुषको दाढी और मूंछके बाल तथा नख एक पक्षमें एक ही दफां कटवाने चाहिये, और अपने दांतसे या हाथसे अपने नख न तोडने चाहिये।
"स्नानके विषयमें" स्नान करना, शरीरकी पवित्रताका और सुखका एवं परिणाम शुद्धिको प्राप्त करनेका तथा भाव शुद्धिका कारण है। दूसरे अष्टक प्रकरणमें कहा है कि
जलेन देहदेशस्य, क्षणं यच्छुद्धिकारणं॥ .
प्रायो जन्यानुरोधेन, द्रव्यस्नानं तदुच्यते ॥१॥ देह देश याने शरीरके एक भागको ही, सोभी अधिक टाईम नहीं किन्तु क्षणवार ही, ( अतिसारादिकरोगियोंको क्षणवार भी शुद्धिका कारण न होनेके लिए ) प्रायः शुद्धिका कारण है, परन्तु एकांत शुद्धिका कारण नहीं है। धोने योग्य जो शरीरका मैल है उसे दूर करने रूप परन्तु कान नाकके अन्दर रहा हुवा मैल जिससे दूर न किया जा सके ऐसे अल्प प्रायः जलसे दूसरे प्राणियोंका बचाव करते हुए जो होता है, उसे द्रव्य स्नान कहते हैं । ( अर्थात् जलके द्वारा जो क्षणवार देह देशकी शुद्धिका कारण है उसे द्रव्यस्नान कहते हैं।
कृत्वेदं यो विधानेन, देवतातिथिपूजनं ॥
करोति मलिनारंभी, तस्यैतदपि शोभनं ॥२॥ जो गृहस्थ उपरोक्त युक्तिपूर्वक विधिसे देव गुरुकी पूजा करनेके लिए ही द्रव्य स्नान करता है उसे वह भी शोभनीय है। द्रव्यस्नान शोभनीय है, इसका हेतु बतलाते हैं।