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श्राद्धविधि प्रकरण ( अकस्मात मुखमें पड़ा हुवा ) ऐसे पाठका आशय समझना, यदि ऐसे न करे तो प्रत्याख्यान की निर्म लता नहीं होती ( और प्रत्याख्यान न बने तो दोष लगे) (ऐसा पडिककमिय इस पदका अभिप्राय बतलाया)
"जिन पूजा करनेके लिए द्रव्य-शुद्धि” “सूइ पुइअ" इस पदका व्याख्यान बतलाते हैं। सूचि याने मलोत्सर्ग (लघु और बड़ी नीति ) करना, दतवन करना, जीभका मैल उतारना, कुल्ला करना, सर्वस्नान, देशस्नान, आदिसे पवित्र होना, यह अनुवाद लोक प्रसिद्ध ही है । इसी कारण इस विषयमें विशेष कहनेकी जरूरत नहीं, तथापि अनजानको जानकर करना पंडितोंका यही आशय है। जैसे कि, जहांपर अभिप्राय न समझा जा सकता तो वह अर्थ शास्त्रकार समझाते हैं। उदाहरणके तौर पर "मलिन पुरुषने स्नान न करना, भूखेने भोजन न करना ऐसे अर्थ में शास्त्रकी जरूरत पड़ती है।" इसलिए जो लौकिक व्यवहार संपूर्णतया न जानता हो उसे उपदेश करना सफल है। यह उपदेश करनेवालेका धर्म है; परन्तु आदेश करना धर्म नहीं। इसलिए उपदेश द्वारा सर्व व्यवहार बतलाया जायगा। सावध आरंभमें शास्त्रकारको अनुमोदन करना योग्य नहीं परन्तु उपदेशकी मनाई नहीं है तदर्थ कहा है कि:
सावजण वज्जाणं । वयणाणं जो न जाणइ निसेसं॥
वोत्तु पि तस्स न खमं । किमंगपुण देसणं काउं॥१॥ जो पाप वर्जितं क्वनकी न्यूनाधिकताके अन्तरको न समझ सके याने यह बोलनेसे मुझे पाप लगेगा या न लगेगा ऐसा न समझ सके उसे बोलना भी योग्य नहीं, तव फिर उपदेश देना किस तरह योग्य हो ? इसलिये विवक धारण कर उपदेश देना कि, जिससे पाप न लगे। ___ मौनधारी होकर निर्दोष योग्य स्थानमें विधि पूर्वक ही मलोत्सर्गका त्याग करना उचित है। इसके लिए विवेक विलासमें कहा है कि-(मौनतया करने योग्य कर्तब्य )
मूत्रोत्सर्ग मलोत्सर्ग मैथुनं स्नानभोजने ॥
संध्यादिकर्म पूजा च कुर्याज्जापं च मोमवान् ॥१॥ लघुनीति, बड़ीनीति, मैथुन, स्नान, भोजन, संध्यादिकी क्रिया, पूजा और जाप इतने कार्य मौन होकर
करना।
. "लघुनीति और बडी नीति करनेकी दिशा"
पोनीवस्त्रातः कुर्यादिनसंध्या द्वयोपि च ॥
उशरायां सकृन्मूत्रे रात्रौयाम्याननं पुनः॥२॥ वस्त्र पहन कर मौनतया दिनमें और दोनों संध्या समय ( सुबह, शाम ) यदि मल मूत्र करना हो तो उत्तर दिशा सन्मुख करना और यदि रात्रिमें करना हो तो दक्षिण दिशा सन्मुख करना।