________________
श्रीद्धविधि प्रकरण सव परिवार ने तत्काल आकर केवली महाराज को वन्दन किया। उस वक्त केवली महाराज भो उन्हें अमृत के समान देशना देने लगे कि हे भव्य जीवों ! साधु और श्रावक का धर्म ये दोनों संसार रूप समुद्र से पार होने के लिये सेतु (पुल) के समान है। साधु का मार्ग सोधा और श्रावक का मार्ग जरा फेर वाला है। साधु का धर्म कठिन और श्रावक का धर्म सुकोमल है, अतः इन दोनों धर्म (मार्ग) में से जिस से जो बन सके उसे आत्मकल्याणार्थ अंगीकार करना चाहिये । ऐसी वाणी सुन कर कमलमाला रानी, हंस के समान स्वच्छ स्व. भावी हंसराज और चन्द्रांक इन तीनों ने उत्कट वैराग्य प्राप्त कर तत्काल ही उन के पास दीक्षा अङ्गीकार की और निरतिचार चारित्र द्वारा आयु पूर्ण कर मोक्ष में सिधारे । शुकराज ने भी सपरिवार साधुधर्म पर प्रीति रख कर सम्यक्त्वमूल श्रावक के बारह व्रत अङ्गीकार किये । दुराचारिणी चंद्रवती का दुराचार मृगध्वज केवलो और वैसे ही वैरागी चंद्रांक मुनि ने भी प्रकाशित न किया। क्योंकि दूसरे के दूषण प्रकट करनेका स्वभाव भवाभिनंदी (भव बढाने वाले) का ही होता है इसलिये ऐसे वैराग्यवंत और ज्ञानभानु होने पर वे दूसरे के दूषण क्योंप्रगट करें। कहा भी है कि अपनी प्रशंसा और दूसरे की निंदा करना यह लक्षण निर्गुणो का है और दूसरे की प्रशंसा एवं स्वनिंदा करना यह लक्षण सद्गुणो का है। तदनन्तर ज्यों सूर्य अपनी पवित्र किरणों द्वारा पृथ्वी को पावन करता है त्यों वह मृगध्वज केवली अपने चरण कमलों से भूमि को पवित्र करते हुए वहां से अन्यत्र विहार कर गये और इन्द्र के समान पराक्रमी शुकराज अपने राज्य को पालन करने लगा । धिक्कार है कामी पुरुषोंके कदाग्रह को ! क्यों कि पूर्वोक्त घटना बनने पर भी चन्द्रवती पर अति स्नेह रखने वाला अन्याय शिरोमणि चन्द्रशेखर शुकराज कुमार पर द्रोह करने के लिए अपनी कुल देवी के पास बहुत से कष्ट करके भी याचना करने लगा। देवी ने प्रसन्न होकर पूछा कि, तू क्या चाहता है ? उसने कहा कि, मैं शुकराज का राज्य चाहता हूं। तब वह कहने लगी कि शुकराज गुढ़ सम्यकत्वधारी है, इसलिए जैसे सिंह का सामना मृगी नहीं कर सकती, वेसे ही मैं भी तुझे उस का राज्य दिलाने के लिये समर्थ नहीं, चन्द्रशेखर बोला तू अवित्य शक्ति वाली देवी है तो बल से या छल से उस का राज्य मुझे जरूर दिला दे । ऐसे अत्यंत भक्ति वाले वचनों से सुप्र. सन्न हो देवि कहने लगो कि, छल करके उसका राज्य लेने का एक उपाय है, परंतु बल से लेने का एक भी उपाय नहीं । यदि शुकराज किसी कार्य के प्रसंग से दूसरे स्थान पर जाय तो उस वक्त तू वहां जाकर उसके सिंहासन पर चढ़ बैठना । फिर मेरी दैविक शक्ति से तेरा रूप शुकराज के समान ही बन जायगा । फिर तू वहां पर सुखपूर्वक स्वेच्छाचारी सुख भोगना। ऐसा कह कर देवि अदृश्य हो गई। चन्द्रशेखर ने ये सब बातें चन्द्रवती को विदित कर दी । एक दिन शुकराज को शत्रुजय तीर्थ की यात्रा जाने की उत्कंठा होने से वह अपनी रानियों से कहने लगा कि, मैं शत्रुजय तीर्थ की यात्रा करने के लिए उन मुनियों के आश्रम में जाता हूँ । रानियां बोली-"हम भी आपके साथ आवेंगी, क्योंकि हमारे लिए एक पन्थ दो काज होगा, तीर्थ की यात्रा और हमारे माता पिता का मिलाप भी शेगा। तदनंतर प्रधान आदि अन्य किसी को न कह कर अपनी स्त्रियों को साथ ले शुकराज विमान में बैठकर यात्रा के लिये निकला । यह वृत्तांत चन्द्रवती को मालूम पड़ने से उसने तुरत ही चन्द्रशेखर को विदित किया । अब वह तत्काल ही वहां आकर परकाय प्रवेश विद्या वाले के