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श्राद्धविधि प्रकरण ___ गुरुने देशनामें सूत्र या अर्थ जो कहा हो उसे सत्य समझ हृदयमें धारण करे, गुरू पर स्वच्छ हृदय रक्खे, ऐसे श्रावक को जैनशासन में दर्पण समान श्रावक कहा है।
पवणेण पडागा इव । भामिज्जइ जो जणेण मुढेण ॥
अविणिच्छिअं गुरुवयणो । सो होइ पडाइमा तुल्लो ।। २ ।। जिस प्रकार पवनसे ध्वजा हिलती रहती है, वैसेही देशना सुनते समय भी जिस का वित्त स्थिर नहीं रहता और जो गुरुके कथन किये वचन का निर्णय नहीं कर सकता उसे पताका समान श्रावक समझना ।
पडिवन्न मसग्गाह । नमुअइ गीयथ्य समणु सिहोवि ॥
थाणु समाणो एसो । अपओसि मुणिजणे नवरं ।। ३॥ इसमें इतना विशेष है कि, गीतार्थ ( पण्डित) द्वारा बहुतसा समझाया जाने पर भी अपने कदाग्रह को बिलकुल न छोड़ने वाला श्रावक खूटे के समान समझना चाहिये।
उमग्गदेसओ निन्हवासि । मूढोसि मंद धम्मोसि ॥
इय सम्मंपि कहतं । खरंटए सो खरंट समो ॥ ४ ॥ यद्यपि गुरु सच्चा अर्थ कहता हो तथापि उसे न मानकर अंत में उन्हें उलटा यों बोलने लग जाय तू उन्मार्गदर्शक है, निह्नव (धर्मलोपी ) है, मूर्ख है, धर्म से शिथिल परिणामी है । ऐसे दुर्वचन रूप मेल से गुरु को लोपित करे उसे खरंटक ( कांटेके समान ) श्रावक समझना।
जहसिढिल मसूई दव्वं । छुप्पं तं पिहुनरं खरंटेई ॥
एवं मणुसा सगपिहु । दुसंतो भन्नई खरंटो ॥५॥ जिस तरह प्रवाही, अशुचि, पदार्थ को अड़ने पर मनुष्य सन जाता है वैसे ही शिक्षा देनेवाले को ही जो दुर्वचन बोले वह खरंटक श्रावक समझा जाता है।
निच्छयो मिच्छत्ती। खरंटतुल्लो सविति तुल्लोवि ॥
ववहारओ य सट्टा । वयंति जं जिणगिहाईसु ॥ ६ ॥ खरंटक और सपत्नी ( सौत समान ) श्रावक इन दोनों को शास्त्रकारों ने निश्चयनय मत से मिथ्यात्वी ही कहा है, परंतु जिनेश्वर भगवान के मन्दिर आदि की सारसंभाल रखता है इससे उसे व्यवहार नय से श्रावक कहना चाहिये।
"श्रावक शब्द का अर्थ दान, शील, तप और भावना आदि शुभ योगों द्वारा आठ प्रकार के कर्म समय समय निर्जरित करें (पतले करे या कम करे वा निर्वल करे) उसे और साधु के पास सम्यक् समाचारी सुनकर तथैव वर्तन करे उसे श्रावक कहा जा सकता है। यहां पर श्रावक शब्दका अभिप्राय ( अर्थ ) भी भावश्रावक में संभवित होता है। कहा है कि