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श्राद्धविधि प्रकरण
जाता है, परंतु कदाचित् रोगादि के कारण से पांच प्रहर उपरांत भी साधू को रखना पड़े तो रख्खा जा कता है, और शीतकाल स्निग्ध होने से जाड़े के मौसम में वह चार प्रहर उपरांत सचित्त हो जाता है। एवं वर्षाकाल अति स्निग्ध होने से चातुर्मास में वह तीन प्रहर उपरांत सचित्त हो जाता है। इसलिये उपरोक्त काल से उपरान्त यदि किसी को अचित्त जल रखनेकी इच्छा हो तो उसमें क्षार पदार्थ डाल कर रखना कि जिस से वह अचित्त जल सचित्त न हो सके” । किसी भी बाह्य शस्त्रके लगे बिना स्वभाव से ही अवित्त जल है ऐसा यदि केवली, मनपर्यव ज्ञानी, अवधिज्ञानी, मतिज्ञानी, या श्रुतज्ञानी, अपने ज्ञान बलसे जानते
तथापि वह अन्य व्यवस्था प्रसंग के ( मर्यादा टूटने के ) भय से उपयोग में नहीं लेते, एवं दूसरे को भी व्यवहार में लेने की आज्ञा नहीं करते । सुना जाता हैं कि, एक समय भगवान वर्धमान स्वामी ने अपने अद्वितीय ज्ञानबल से जान लिया था कि, यह सरोवर स्वभाव से ही अचित्त जल से भरा हुवा है तथा शैवाल या मत्स्य कच्छपादिक त्रस जीवसे भी रहित है, उस वक्त उनके कितने एक शिष्य तृषा से पीडित हो प्राणसंशय में थे तथापि उन्होंने वह प्रासूक जल भी ग्रहण करनेकी आज्ञा न दी। एवं किसी समय शिष्य जन भूखकी पीड़ा से पीडित हुये थे उस वक्त अचित्त तिल सकट, (तिलसे भरी गाडियां) नजदीक होने पर भी अनवस्था दोष रक्षा के लिये या श्रुतज्ञान का प्रमाणिकत्व बतलाने के लिये उन्हें वह भक्षण करने की
ज्ञान दी । पूर्वधर बिना समान्य श्रुतज्ञानी बाह्य शस्त्र के स्पर्श हुये बिना पानी आदि अचित्त हुवा है ऐसा नहीं जान सकते । इसीलिये बाह्य शस्त्र के प्रयोगसे वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, परिणामांतर पाये बाद ही पानी आदि अचित्त होने पर ही अंगीकार करना। कोरडू मूंग, हरडे की कलियां वगैरह यद्यपि निर्जीव हैं तथापि उन की योनी नष्ट नहीं हुई उसे रखने के लिये या निःशुकता परिणाम निवारण करने के लिये उन्हें दांत
रह से तोड़ने का निषेध है। ओघनियुक्ति की पिचहत्तरवीं गाथा की वृत्तिमें किसी ने प्रश्न किया है कि, हे महाराज ! अचित्त वनस्पति की यतना करने के लिये क्यों फरमाते हो ? आचार्य उत्तर देते हैं कि, यद्यपि अचित्त वनस्पति है तथापि कितनी एक की योनि नष्ट नहीं हुई, जैसे कि गिलोय, कुरडु मूंग ( गिलोय सूखी हुई हो तो भी उस पर पानी सींचने से पुनः हरी हो सकती है ) योनि रक्षा के लिए अचित्त वनस्पति की यतना करना भी फलदायक है ।
इस प्रकार सचित्त अवित्तका स्वरूप समझ कर फिर सप्तम व्रत ग्रहण करनेके समय सवका पृथक पृथक नाम ले कर सचित्तादि जो जो वस्तु भोगने योग्य हों उसका निश्चय कर के फिर जैसे आनन्द कामदेवादिक श्रावकों ने ग्रहण किया वैसे सप्तम व्रत अंगीकार करना । कदाचित् ऐसा करने का न बन सके तथापि सामान्य से प्रतिदिन एक दो, चार, सचित्त, दस, बारह आदि द्रव्य, एक, दो, चार, विगय आदिका नियम करना । ऐसे दस रोज सवित्तादि का अभिग्रह रखते हुए जुदे जुदे दिन रोज फेरने से सर्व सचित्त के त्याग का भी फल मिल सकता है। एकदम सर्व सचित्तका त्याग नहीं हो सकता; परन्तु थोड़ा थोड़ा अदल बदल त्याग करने से यावज्जीव सर्व सचित्त के त्याग का फल प्राप्त किया जा सकता हैं।
पुष्पफलाणं च रसं । सुराह मंसाण महिलीयाणं च ॥