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श्राद्धविधि प्रकरण आत्मा जान सके ऐसा )२ उपांसुजाप-यामी अन्य कोई न सुन सके परन्तु अंतर जल्प रूप ( अंदर से जिस में बोला जाता हो ऐसा) जाप । ३ भाष्य जाप-यानी जिसे दूसरे सब सुन सके ऐसा जाप । इस तीन प्रकार के जाप में भाष्य से उपांसु अधिक और उपांसु से मानस अधिक लाभ प्रद है। ये इसी प्रकार शांतिक पुष्टिक आकर्षणादिक कार्यों की सिद्धि कराते हैं। मानस जाप रत्नसाध्य (बड़े प्रयास से साध्य किया जाय ऐसा) है और भाष्य जाप सम्पूर्ण फल नहीं दे सकता इसलिये उपांसु जाप सुगमता से बन सकता है अतः उसमें उद्यम करना श्रेयकारी है।
नक्कार की पांच पदकी या नवपद की अनुपूर्वी चित्त की एकाग्रता रखने के लिए साधनभूत होने से गिनना श्रेयस्कर है। उसमें भी एक २ अक्षर के पद की अनुपूर्वी गिनना कहा है। योगप्रकाश के आठवें प्रकाश में कहा है कि
गुरुपंचकनामोथ्था, विद्यास्यात् षोडशाक्षरा ।
जपन् शतद्वयं तस्याश्चतुर्थस्याप्नुयात्फलं ॥१॥ अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उवज्झाय, साहू, इन सोलह अक्षरोंकी विद्या २०० दार जपे तो एक उपवास का फल मिलता है।
शतानित्रीणि षड्वर्ण, चत्वारिंश्चतुरक्षरं ।
पंचवणेजपन् योगी, चतुर्थफलम ते ॥ २॥ "अरिहन्त, सिद्ध, इन छह अक्षरों का मंत्र तीन सो बार और 'असिआउसा' इन पांच अक्षरों का मंत्र (पंचपरमेष्टी के प्रथमाक्षर रूप मंत्र ) और 'अरिहंत' इन चार अक्षरों का मंत्र चारसो दफा गिनने वाला योगी एक उपवास का फल प्राप्त
प्रवृचिहेतुरेवैत, दमीषां कथितं फलं ।
फलं स्वर्गापवर्ग च, वदंति परमार्थतः ॥३॥ , नवकार मंत्र गिनना यह भक्ति का हेतु है । और उसका सामान्यतया स्वर्ग फल बतलाया है, तथापि आचार्य उसका मोक्ष ही फल बतलाते हैं।
“पांच अक्षर का मंत्र गिनने की विधि"
नाभिपने स्थितं ध्यायेदकारं विश्वतोमुखं ।
'सिवर्ण मस्तकांभोजे, आकारं वदनांबुजे ॥ ४॥ - नाभि कमल में स्थापित 'अ' कार को ध्याओ, मस्तक रूप कमल में विश्व में मुख्य ऐसे 'सि' अक्षर को ध्याओ, और मुख रूप कमल में 'आ'कार को ध्याओ !
उकारं हृदयांभोजे, साकार कंठपंजरे ॥ सर्वकल्याणकारीणि, बीजान्यन्यापि समरेत् ॥ ५ ॥