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श्राद्धविधि प्रकरण कहलाते हैं ) यानी पांच अणुव्रत, तीन गुणवत और चार शिक्षाव्रत एवं सम्यक्त्व सहित बारह व्रतों को धारण करे वह सुदर्शन के समान उत्तरगुणश्रावक कहलाता है।
अथवा ऊपर कहे हुए बारह व्रतों में से सम्यक्त्व सहित एक, दो अथवा इस से अधिक चाहे जितने व्रत धारण करे उसे भी व्रतश्रावक समझना और उत्तरगुणश्रावक को निम्न लिखे मुजब समझना ।
सम्यक्त्व सहित बारह व्रतधारी, सर्वथा सचित्त परिहारी, एकाहारी, ( एक बार भोजन करने वाला ) तिविहार, चौविहार, प्रत्याख्यान करने वाला, ब्रह्मचारी, भूमिशयनकारी, श्रावक की ग्यारह प्रतिमा* धारण करने वाला एवं अन्य भी कितने एक अभिग्रह के धारण करने वाला उत्तरगुणश्रावक कहलाता है । आनंद कामदेव और कार्तिक सेठ जैसे को उत्तरगुणश्रावक समझना।
व्रत श्रावक में विषेष बतलाते हैं कि, द्विविध यानी करू नहीं कराऊं नहीं, त्रिविध यानी मन से, वचन से और शरीर से , इस प्रकार भङ्ग की योजना करते हुए एवं उत्तरगुण अविरति के भङ्ग से योजना करने से एक संयोगो, विक्संयोगी, त्रिकसंयोगी और चतुष्क संयोगी, इस तरह श्रावक के बारह व्रतों के मिलकर नीचे मुजब भङ्ग ( भांगा ) होते हैं।
तेरस कोडी सयाई । चुलसीइ जुयाई बारसय लख्खा ॥
सत्तासीइ सहस्सा । दुनि सया तह दुरगाय ॥ तेरहसो चौरासी करोड़, बारहसौ लाख सत्ताइस हजार. दो सौ और दो भांगें समझना चाहिए। यहां पर किसी को यह शङ्का उत्पन्न हो सकती है कि मन से, ववन से, काया से, न करू',न कराऊं, न करते की अनुमोदना करू ! ऐसे नव कोटिका भङ्ग उपर किसी भी भङ्ग में क्यों नहीं पतलाया ? उसके लिये यह उत्तर है कि श्रावक को द्विविध त्रिविध भङ्ग से ही प्रत्याख्यान होता है, परन्तु त्रिविध विविध भङ्ग से नहीं होता क्योंकि व्रत ग्रहण किए पहिले जो जो कार्य जोड़ रक्खें हों तथा पुत्र आदि ने व्यापार में अधिक लाभ प्राप्त किया हो एवं किसी ने ऐसा बड़ा अलभ्य लाभ प्राप्त किया हो तो श्रावक से अन्तजल्प रुप अनुमोदन हुए बिना नहीं रहता, इसीलिये त्रिविध २ भङ्ग का निषेध किया है । तथापि 'श्रावक प्रज्ञप्ति' ग्रन्थ में त्रिविधत्रिविध श्रावक के लिये प्रत्याख्यान कहा हुवा है, परन्तु वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आश्रयी विशेष प्रत्याख्यान गिनाया हुवा है । महाभाष्य में भी कहा है कि
केइ भणति गिहिणो। तिविहं तिविहेग नथ्थि संवरणं ।। तं न जओ निदिई । पन्नचीए विसेसाओ ॥ १ ॥
___ * 'श्रावक की प्रतिमा याने श्रावकपन में उत्कृष्ट रीति से वर्तना, (प्रतिमा समान रहना ) उसके ग्यारह प्रकार हैं। १ समकित प्रतिमा, २ व्रतप्रतिमा, १ सामायिकप्रतिमा, ४ पौषधप्रतिमा, ५ कायोत्सर्गप्रतिमा, ६ अब्रह्मवर्जकप्रतिमा ( ब्रम्हचर्यत्रतपालना) ७ सचित्त वर्जक प्रतिमा ( सचित्त आहार न करे), ८ प्रारम्भ वर्जक प्रतिमा, 6 प्रेष्य वर्जक प्रतिमा, १० उदिष्ट वर्जक प्रतिमा, ११ श्रमणभूत पूतिमा। ..