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श्राद्धविधि प्रकरण ____किं न दायमति बहुपि क्षणादृच्छिखेन शिखिनात्र दह्यते ॥१॥ तीव्र तप करने से करोड़ों भवों के किये हुये पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं। क्या प्रचंड अग्नि की ज्वाला में बड़े बड़े लक्कड़ नहीं जल जाते ?
यह वचन सुन कर उसी मृगध्वज केवली के पास अपने सर्व पापों की आलोचना (प्रायश्चित्त) ले मास क्षपण आदि अति घोर तपस्या कर के चंद्रशेखर उसी तीर्थ पर सिद्धि गति को प्राप्त हुवा।।
निष्कंटक राज्य भोगता हुवा परमार्हत् (शुद्ध सम्यक्त्व धारी) पुरुषों में शुकराज एक दृष्टांत रूप हुवा। उसने बाह्य अभ्यन्तर दोनों प्रकार के शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। रथयात्रा, तीर्थयात्रा, संघयात्रा, एवं तीन प्रकार की यात्रा उसने बहुत ही बार की। और साधु, सात्री, श्रावक, श्राविका एवं चार प्रकारके श्रीसंघ की भी समय समय पर उसने खूब ही भक्ति की । धर्मकरणी से समय निर्गमन करते हुये उसे प्रभावती पटरानी की कुक्षी से पभाकर नामक और वायुवेगा लघु रानी की कुक्षी से वायुसार नामा पुत्र की प्राप्ति हुई । ये दोनों कृष्ण के पुत्र सांब और प्रद्युम्न कुमार के समान अपने गुणोंसे शुकराज के जैसे ही पराक्रमी हुवे। एक दिन शुकराजने पद्माकर को राज्य और वायुसार को युवराज पद समर्पण किया। तदनंतर दोनों रानियों सहित दीक्षा लेकर भाव शत्रु का जय और चित्तको स्थिर करनेके लिए वह शत्रुजय तीर्थपर आया । परन्तु आश्चर्य है कि वह महात्मा शुकराज ज्यों गिरिराज पर चढ़ने लगा त्यों शुक्लध्यान के उपयोग से क्षपकश्रेणि रूप सीढ़ी पर चढ़ते बढ़ते ही केवलज्ञान को प्राप्त हुवा । अब बहुत काल तक पृथ्वी पर विचरते हुए अनेक प्राणियों के अज्ञान और मोहरूप अन्धकार को दूर करके अनुक्रम से दोनों साध्वियों सहित शुकराज केवली ने मोक्षपद को प्राप्त किया।
१ भद्रप्रकृति, २ न्यायमार्गरति, ३ विशेष निपुणमति, ४ दृढ़निजपचनस्थिति, इन चार गुणों को प्रथम से ही प्राप्त करके सम्यक्त्व रोहण कर शुकराज ने उसका निर्वाह किया। जिस से वह अंत में सिद्धि गति को प्राप्त हुवा। ___ यह आश्चर्य कारक शुकराज का चरित्र सुन कर हे भव्य प्राणियों ! पूर्वोक्त चार गुण पालन करने में उद्यमवंत बनो।
- ॥ इति शुकराज कथा समाप्ता॥