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श्राद्धविधि प्रकरण
जाग जागने जोगी हो, जोई ने जोग विचारा: (ये आंकणी मेली अमारग मारग आदर, जिमि पामे भव पारा ॥ २ ॥ अति है गहना अति हे कूडा, अतिहि अथिर संसारा;
भांमो छांडी जोगने मांडी, कीजे जिन धर्म सारा ॥ जाग० ॥ ३ ॥
२ ३ ४
मोहे मोह्यो कोहे खोह्यो लोहे वाह्यो ध्याये
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for a car कारण मूरख दुहियो थाये ॥ जाग० ॥ ४ ॥
एकने कारण येने खेचे त्रण संचे चार वारे;
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१४.
पांचे पाले छनेटाले आपे आप उतारे ॥ जाग० ॥ ५ ॥
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ऐसा वैराग्यमय उसका गायन सुन वैराग्यवंत शांत काय होकर राज चंद्रशेक को साथ ले अपनो नगरी के बाह्योद्यान में ( नगर के पास बगीचे में) आया। नगर बाहर ही रहकर संसार से विरक्त राजा ने अपने दोनों पुत्रों तथा प्रधान को बुलवा कर कहा कि, मेरा वित्त अब संसार से सर्वथा उठ गया है ओर उस से मैं 'बड़ा पीड़ित हुआ हूं, इसलिये मेरे राज्य की धुरा शुकराजकुमार को सुपुर्द की जाय। अब मैं यहां से ही दीक्षा लेकर चलता बनूंगा। अब मैं राजमहल में बिल्कुल न आऊंगा। राजा के ये वचन सुनकर मन्त्री वगैरह कहने लगे कि स्वामिन्! आप एक बार राजमहल में तो पधारो ! उसने तो गुनाह नहीं किया है ? क्यों कि बंध तो परिणाम से हो होता है, निर्मोहो मन वालों के लिये घर भी अरण्य के समान है और मोहवन्त के लिये अरण्य भो घर समान है। राजा लोगों के अत्याग्रह से अपने परिवार सहित तथा चंद्रांक सहित मैगर में आया। राजा के साथ चन्द्रांक को वहां आया देख कामदेव यक्ष का कहा हुवा वखन याद आने से अंजन के प्रभाव से कोई भी न देख सके इस प्रकार समय प्रच्छन्नतया चन्द्रवती के पास रहा हुवा चन्द्रशेखर तत्काल हो वहां से अपने प्राण लेकर स्त्रनगर में भाग गया। बड़े महोत्सव सहित मृगध्वज राजा ने शुकराज को राज्याभिषेक किया और दक्षा लेनेके लिये उस की अनुमति ली । अब रात्रिके समय मृगध्वज राजा वैराग्य और ज्ञानपूर्ण बुद्धि से विचार करता है कि कब प्रातःकाल हो और कब मैं दोक्षा अंगीकार करू । कब वह शुभ समय आवे कि, जब मैं निरतिचार चारित्रवान होकर विचरूंगा, एवं कब वह शुभ घडी और शुभ मुहूर्त आयेगा कि जब मैं संसार में परिभ्रमण कराने वाले कर्मों का क्षय करूंगा । इस प्रकार उत्कृष्ट शुभध्यान के चंढते परिणाम से 'तल्लीन हो राजा किसी ऐसी एक अलौकिक भावना को भाने लगा कि जिसके प्रभाव से प्रातःकाल के समय मानो स्पर्धा से ही चार कर्म नष्ट होने पर सूर्योदय के साथ हो उसे अनन्तं केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । लोकालोक की समस्त वस्तु को जानने वाले मृगध्वज केवली के केवलज्ञान को महिमा करने वाले देवताओं ने बढ़े हर्ष के प्रातःकाल में उन्हें साधू वेव अर्पण किया । यह व्यतिकर सुन कर साश्चय और सहर्ष शुकराज आदि
१ क्रोध २ दुखी भया, ३ लोभसे ४ लग गया ५ मुफ्त ६ अज्ञानसे, ७ दुखी ८ आत्म शुद्ध करनेके लिये राग द्वेषको १० छोड दो ११ रत्नत्रयी १९ कषाय १२ महाव्रत २४ क्रोध, लोभ, मोह, हास्य, मान, हर्ष, १५ इन अन्तरंग शत्रुओं को टालनेसे ।