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श्राद्धविधि प्रकरण केवली भगवान के ये वचन सुनकर पूर्वभव का वैर याद आने से मुझे हंसराज को मार डालने की बुद्धि सूझी थो, इसी से मैं यहां पर आया था। यद्यपि मेरे पिता ने वहां से निकलते समय मुझे बहुत कुछ समझाया
और रोका था, तथापि मैं रोकने से न रुका ! अन्त में संग्राम में मुझे आपके हंसराज पुत्र ने जीत लिया, इसीलिये पूर्व के पुण्य से अब मुझे वैराग्य उत्पन्न हुवा है । इससे मैं उन श्रीदत्त नामा केवली भगवान के पास जाकर दीक्षा ग्रहण करूंगा। ऐसा कहकर सूरकुमार अपने नगर को चल दिया। वहां जाकर अपने माता पिता को आज्ञा ले उसने गुरु महाराज के पास दोक्षा ग्रहण की । कहा है कि "धर्मस्य त्वरितागतिः" ।
मृगध्वज राजा अपने मन में विचार करने लगा, जिस का मन जिस पर लगता हैं उसे उसी वस्तु पर अभिरुचि होती है । मुझे भी दोक्षा लेने की अभिरुवि है, परन्तु उत्कृष्ट वराग्य न जाने मुझे क्यों नहीं उत्पन्न होता! यह विचार करते हुये राजा मन में केवलज्ञानी के वचनों को स्मरण करता है। उन्होंने कहा था कि, जब तू चंदवती के पत्र को देखेगा तब ती तत्काल हो वैराग्य प्राप्त होगा। परंत वंध्या स्त्री के समान उसे तो अभी तक पुत्र हुवा ही नहीं, तब मुझे अब क्या करना चाहिये ! राजा मन में इन विचारों की बुना उधेड़ी में लगा हुवा है ठीक उसी समय एक पवित्र पुण्यशाली युवा पुरुष उसके पास आकर नमस्कार कर खड़ा रहा। राजा ने पूछा कि तुम कौन हो ? अब वह राजा को उत्तर देने के लिये तैयार होता है उतने में ही आकाशवाणी होती है कि हे राजन् ! सचमुच यह चंद्रवती का पुत्र है । यदि इस में तुझे संशय हो तो यहां से ईशान कोण में पांच योजन पर एक पर्वत है उस पर एक कदली नामक बन है वहां जाकर यशोमति नामा ज्ञानवती योगिनी को पूछेगा तो वह तुझे इस का सर्व वृत्तांत कह सुनायेगी। ऐसी देववाणी सुनकर साश्चर्य मृगध्वज राजा उस पुरुष को साथ ले पूर्वोक्त वन में गया। वहां पर पूछने पर योगिनी ने भो राजा से कहा कि हे राजन् ! जो तू ने देववाणी सुनी है वह सत्य ही है। इस संसार रूप अटवी का बड़ा महा विकट मार्ग है कि जिसमें तुम्हारे जैसे वस्तुस्वरूप के जानने वाले पुरुष भी उलझन में पड़ जाते हैं। इसका वृत्तांत आद्योपांत तुम ध्यान पूर्वक सुनोः. चंद्रपुरी नगरी में चंद्र समान उज्वल यशस्वी सोमचंद्र नामा राजा की भानुमती नामा रानी की कुक्षी में हेमन्त क्षेत्र से एक युगल (दो जीव ) सौधर्म देवलोक में जाकर वहां के सुख भोग कर वहां से व्यवकर उत्पन्न हुये। नौ मास के बाद एक स्त्री और पुरुष तया जन्म लिया । इन का चंद्रशेखर और चंद्रवती नाम रक्खा गया। अब वे दिनोदिन वृद्धि को प्राप्त होते हुए यौवन अवस्था को प्राप्त हुये । चंद्रवती को तेरे साथ और चंद्रशेखर को यशोमति के साथ व्याह दिया गया । यद्यपि पूर्वभव के स्नेह भाव से वे दोनों (चंद्रशेखर और चंद्रवती बहन भाई थे तथापि उनमें परस्पर रागबंधन था । धिक्कार है काम विकार को ! जब तुम पहले गांगिल ऋषि के आश्रम में गये थे उस समय तेरी मुख्य रानी चंद्रवती ने चंद्रशेखर को अपना मनोवांछित पूर्ण करने के लिये बुलाया था। वह तो तेरा राज्य ले लेने की बुद्धि से ही आया था, परंतु तेरे पुण्य जल से जैसे अग्नि बुझ जाता है वैसे ही उसका निर्धारित पूरा न होने के कारण अपना प्रयाल वृथा समझ कर वह पीछे लौट गया। उस वक्त उन दोनों ने तेरे जैसे विचक्षण मनुष्य को भी नाना प्रकार की वचन युक्तियों से ठंडा