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श्राद्धविधि प्रकरण वह आधा रास्ता तै कर चुका उस वक्त विमलपुरो में कुछ सार वस्तु भूली हुई उसे याद आई । इससे उसने अपने चरक नामा सेवक को आज्ञा की कि विमलपुर नगरमें अमुक जगह अमुक वस्तु भूल आये हैं, तू उसे जाकर अभी शीघ्र ले आ। उसने कहा कि, स्वामिन् ! मैं अकेला अब उस शून्य स्थान पर किस तरह जा सकूँगा? यह सुनकर प्रधान ने उसे क्रोधपूर्ण ववनों से धमकाया इस से वह बिचारा वहां पर गया। बतलाये हुए स्थान पर जाकर उसने उस वस्तु की बहुत ही खोज की परन्तु पीछे से तुरत ही कोई भील वगैरह उठा ले जाने के कारण वह वस्तु उसे वहां पर न मिली। सेवक ने पीछे आकर प्रधान से कहा कि आपके बतलाये हुये स्थान में बहुत ढूंढने पर भी वह वस्तु नहीं मिली इसलिये शायद उसे वहां से कोई भील उठा ले गया है । इस से प्रधान ने क्रोधित हो कहा कि, बस! तू ही चोर है । तूने ही वस्तु छिपाई है, ऐसा कहकर उसे अपने सुभटों द्वारा खूब पिटवाया। मामिक स्थानों में चोट लगने के कारण वह बहुत समय तक अचेत हो जमीन पर पड़ा रहा। इधर उस बेचारे को मूर्छागत पड़ा छोड़कर सब लोग प्रधान के साथ भहिलपुर नगर की तरफ चले गये कुछ देर के बाद पवन लगने से उसे चेतना प्राप्त हुई । जब वह उठकर इधर उधर देखने लगा तो उसे वहांपर कोई भी नजर नहीं आया, इस वक्त वह विचार करने लगा अहा हा ! कैसे स्वार्थी लोग है कि जो अपना स्वार्थ साध कर मुझे अकेला जङ्गल में छोड़कर चले गये । अहो ! धिक्कार है ऐसी प्रभुता के गर्व से गर्वित उस प्रधान को ! कहा है किः--
चौरा चिल्लक्काइ, गंधिअ भट्टाय विज्ज पाहुलया।
वेसा धूआ नरिंदा, परस्सपीडं न याति ॥१॥ "चोर, बालक, गन्धी, मांगने वाला, मेहमान, वेश्या, लडकी और राजा इतने मनुष्य दूसरे की पीडा का विचार कदापि नहीं करते।"
इस प्रकार विचार किये बाद चरक भद्दीलपुर का रास्ता न मालूम होने से वहांपर मार्ग उन्मार्ग में भटक ने लगा। इस तरह भूख और प्यास से पीड़ित हो आर्त रौद्र ध्यान में लीन हो वह जंगल में ही मृत्यु प्राप्त कर भहिलपुर नगर के समीप वाले वन में देदिप्यमान विषपूर्ण सर्पतया उत्पन्न हुवा । उस ने प्रसंग आने पर उसी पूर्वभव के वैर के कारण उसी सिंह नामा प्रधान को डंक मारा इससे वह तत्काल मरण के शरण हुवा । वह सर्प भी आयु पूर्ण कर नरक गति में पैदा हो वहां बहुतसी दुःसह वेदनायें भोगकर अब वोरांग राजा का सूर मामक तू पुत्र उत्पन्न हुवा है और सिंह नामक प्रधान मृत्यु पाकर काश्मीर के विमलाचल तीर्थ पर के लरोवा में हंस उत्पन्न हुवा है । वहां पर उसे जाति स्मरण होने से उसने विचार किया कि, पूर्वकाल में प्रधान के भव में शत्रुजय तीर्थ को पूर्ण भावयुक्त सेवा न को इस से इस भव में तिथंच गति को प्राप्त हुवा हूं, इसलिये अब मुझे तीर्थ की सेवा करनी चाहिये । इस प्रकार की धारणा कर वह चोंच में पुष्प ले प्रभु की पूजा करता है, एवं दोनों पांखों में पानी भर कर प्रभु को प्रक्षालन करता है । इस प्रकार अनेक तरह से उसने प्रभुभक्ति की। अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुवा। वहां से च्यवकर पूर्व के पुण्य के प्रभाव से मृगध्वज राजा का पुत्र हंसराज नामक उत्पन्न हुवा है।