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श्राद्धविधि प्रकरण एक दिन अषाढ़ के महीने में दैवयोग से विषयुक्त सर्प ने तेरी पुत्री को डस लिया, इससे चेतना रहित बनी हुई उस कन्या को उसकी माता तथा मामा के बहुत से उपचार करनेपर भी जब वह निर्विष न हुई तब विचार किया कि, यदि सर्पदंशित दीर्घ आयु वाला हो तो प्रायः जी सकता है इसलिए इसे अकस्मात् अमिवाह करने की अपेक्षा नीम के पत्तों में लपेटकर और एक सुंदर पेटी में रखकर गंगानदी के प्रवाह में तैरती हुई छोड़ देना विशेष श्रेयस्कर हैं। उन सब ने पूर्वोक्त विचार निश्चयकर वैसा ही किया। परन्तु चातुर्माल के दिन होने से अतिशय वृष्टि होने के कारण गंगा नदी के जलप्रवाह ने जैसे पवन जहाज को खींच ले जाता है वैसे ही किनारे के वृक्षों के साथ उस पेटी को समुद्र में ले जा छोड़ी । वह पेटी जल पर तैरती हुई तेरे हाथ भाई। इसके बाद का वृत्तांत तो तू स्वयं जानता है अतः सचमुच ही यह तेरी पुत्री है।
अब तेरी माता का आश्चर्यजनक वृत्तांत सावधान होकर सुन । उस समर नामा पलिपति के सैन्य से सुरकांत राजा निस्तेज बन गया यानी वह उसके सामने युद्ध करने के लिए समर्थ न हो सका। उसने अपने नगर के दरवाजे बंद करके पर्वत समान ऊंचे किले को सज्ज करके जल,ई धन, धान्य तृणादिक का नगर में संग्रह कर लिया और किलेपर ऐसे शूर वीर सुभटों को आयुध सहित खड़े कर रक्खा कि कोई भी साहसिक होकर नगर के सामने हल्ला न कर सके । यद्यपि इस प्रकार का शूरकांत राजा ने अपने नगर का बंदोबस्त कर रक्खा है तथापि पल्लोपति के सुभट उसी प्रकार भेदन करने का दाव तक रहे थे कि जिस प्रकार महामुनि मोहराजा को भेदन करने के लिए दाव तकते हैं। यद्यपि वे किले पर रहे हुए सुभट बाणों की वृष्टि करते थे तथापि जैसे मदोन्मत्त हाथी अंकुश को नहीं गिनता, वैसे ही समर का सैन्य उस आती हुई बाणावलि को तृण समान समझता था। एक दिन समर पल्लिपति के सैनिकों ने धावा करके नगरके दरवाजे को इस प्रकार तोड़ डाला कि जैसे किसी पत्थर से मिट्टी के घड़े को फोड़ दिया जाता है । समर का सैन्य नगर के उस बड़े दरवाजे का चूरा चूरा करके नदी के प्रवाह के समान एकदम नगर में प्रवेश करने लगा । उस समय तेरा पिता सोमसेठ अपनी स्त्री को प्राप्त करने की उत्कंठा से सैन्य के अग्रभाग में था इसलिये प्रवेश करते समय शत्रुसैन्य की ओर से आने वाले बाणों के प्रहार द्वारा वह तत्काल ही मरण के शरण हुवा । मनुष्य मन में क्या क्या सोचता है ओर देव उसके विपरीत क्या २ कर डालता है ! स्त्री के लिए इतना बड़ा समारंभ किया परन्तु उसमें से अपना ही मरण प्राप्त हुषा।
अब परदारा गमन करने वाला और बहुत से भव भमने वाला सुरकांत राजा भी अफ्मा नगर छोड़ कर प्राण बचाने की आशा से कहीं भाग गया, क्योंकि "पाप में जय कहां से हो ?" जिस प्रकार शिकारी के बाल से मृगी कंपायमान होती है वैसे ही सुभटों के भय से भ्रूजती हुई सोमश्री को ज्यों श्मशान के कुत्ते मुद्दे को झपाटे में पकड़ लेते हैं त्यों ही पल्लिपति के सुभटों ने पकड़ लिया। तदनंतर सारे नगर के लोगों को लूट कर सुभट अपने देश तरफ जाने की तैयारी करते थे, ठीक उसी समय सोमश्री भी अवसर पाकर उनके पंजेसे निकल भागी। सोमश्री अन्य कहीं आश्रय न मिलने से देवयोग से वह वन में चली गई। वहां पर भ्रमण करते