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श्राद्धविधि प्रकरण समुद्र में तैरता हुआ यह सातवें दिन समुद्रको पार कर किनारे पर आया । उस जगह नजदीक में सारस्वत नामा गांव था उस गांव में जाकर जब इसने विश्राम लेने की तैयारी की इतने में इसपर स्नेह रखने वाला इसका संवर नामक मामा वहां पर आ मिला । सात रोज तक समुद्र जल के झकोरे लगने से शङ्खदत्त का शरीर काला और फीका पड़ गया था इसलिए इसे पहचानने वाला भी उस समय बड़े प्रयत्न से पहचान सकता था। इस का मामा इसे पहचान कर अपने घर ले गया और वहां पर खान, पान, औषधी वगैरह तथा तैलादिक का मर्दन करके उसने इसे अच्छा किया। एक दिन इसने अपने मामा से पूछा कि यहां से सुवर्ण. कुल बन्दर कितनी दूर है ? जबाब मिला कि यहां से बीस योजन दूर है और वहां पर आज कल किसी धनवान व्यापारी के कीमती माल से भरे हुए जहाज आये हुये हैं। ऐसा सुनते ही यह रोष और तोष पूर्ण हो अपने मामा की आज्ञा ले सत्वर यहां आया है और इस वक्त तुझे देखकर क्रोधायमान हुआ। दया के समुद्र वह केवलो भगवान् पूर्वभव का सम्बन्ध सुनाकर शङ्खदत्त को शांत करके पुनः कहने लगे–“जिस प्रकार कोई मनुष्य किसी को गाली देता है तब उसे बदले में वही वस्तु मिलती है, तदनुसार तू ने पूर्वभव में श्रीदत्त को मारने का विचार किया था इससे इस भव में इसने तुझे धक्का मारकर समुद्र में फेंक दिया। अब तुम दोनों परस्पर ऐसी प्रीति रखना कि जिससे तुम दोनों को इस भव और परभव में सुख की प्राप्ति हो, क्योंकि सर्व प्राणियों पर मैत्रीभाव रखना यह सचमुच ही मोक्ष मार्ग की सीढी है”। ___ ऐसे ज्ञानो गुरु के पूर्वोक्त मधुर बचन सुनकर वे दोनों परस्पर अपने अपराध की क्षमापना कर निरपराधी बनकर उस दिन को सफल गिनने लगे। केवलो भगवान् धर्मदेशना देते हुए कहने लगे, हे भव्य जीवों ! जिस के प्रभाव से सर्व प्रकार की इष्ट सिद्धि प्राप्त होती है, ऐसे सभ्यक्त्व, देशविरति और सर्वविरति वर्गरह गुणों का अभ्यास करो ! क्योंकि सम्यक्त्व की करणी सर्व प्रकार के सुखों को प्राप्त कराने में समर्थ है। ऐसी देशना सुनकर उन दोनों मित्रों सहित राजा आदि अन्य कितने एक मोक्षाभिलाषी मनुष्यों ने सम्यक्त्व मूल श्रावकधर्म को अंगीकार किया। इतना ही नहीं किन्तु वानररूप में आये हुये उस व्यंतर ने भी सम्यक्त्व प्राप्त किया। इसके बाद ज्ञानी गुरु ने फर्माया कि, यद्यपि सुवर्णरेखा का औदारिक और व्यन्तर का वैक्रिय शरीर है, तथापि पूर्वभव के स्नेह के कारण इन में परस्पर बहुत काल तक स्नेह भाव रहेगा। तदनन्तर राजा ने सन्मान पूर्वक श्रीदत्त को नगर में ले जाकर उस की सर्व ऋद्धि समर्पण की। श्रीदत्त ने भी अपनी आधी समृद्धि और पुत्री शङ्खदत्त को देकर बाकी का धन सात क्षेत्रों में नियोजित किया और उन ज्ञानी गुरू महाराज के पास समहोत्सव दीक्षा अंगीकार.की । तदनन्तर निर्मल चारित्र पालन करने से मोह को जीतकर मैं केवलज्ञान को प्राप्त हुवा हूं । इसलिए हे शुकराज! मुझे भी पूर्वभव के माता और पुत्री पर स्नेह भाव उत्पन्न होने से मानसिक दोष लगा था अतः संसार में जो कुछ आश्चर्यकारी स्वरूप मालूम हो उसे मन में रख कर व्यवहार में जो सत्य गिना जाता हो तदनुसार वर्तना चाहिये, क्यों कि जगत के व्यवहार भी सत्य हैं।
सिद्धांत में दस प्रकार के सस नीचे लिखे मुजब बतलाये हैं।
जणवय संमय ठवणा । नामे रूवे पडूच सच्चेअ ।