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श्राद्धविधि प्रकरण को साथ ले चंपापुरी नगरी में आया । इधर कन्या को कोई हरण कर ले गया यह समाचार राजकुल में विदित हो जाने के कारण समस्त राजकुल चिन्ता रूप अन्धकार में व्याप्त हो रहा था। इस अवसर में राजा के पास जाकर शुकराज ने उस लड़की को समर्पण कर राजा की चिंता दूर की और अरिदमन राजा को तत्सम्बन्धी सर्व वृत्तान्त कह सुनाया । शुकराज का परिचय मिलने पर राजा को विदित हुआ कि यह मेरे मित्र का पुत्र है।शुकराज के परोपकारादि गुणों से प्रसन्न हो अत्यन्त हर्ष और उत्साह सहित अरिदमन राजा ने अपनी पद्मावती पुत्री का उसके साथ विवाह कर दिया। विवाह के समय शुकराजको बहुत सा द्रव्य देकर राजा ने उसकी प्रीति में वृद्धि की। राजा की प्रार्थना से कितने एक समय तक शुकराज ने पद्मावती के साथ संसारसुख भोगते हुए वहां पर ही काल निगमन किया। विवेकी पुरुष के लिए संसार सुख के काय करते हुए भी धर्म कार्य करते रहना श्रेयस्कर है, यह निचार कर शुकराज एक दिन राजा की आज्ञा ले अपनी स्त्री सहित उस विद्याधर के साथ शाश्वती और अशाश्वतो जिन प्रतिमाओं को वन्दन करने के लिए वैताढ्य पर्वत पर गया । रास्ते की अद्भुत नैसर्गिक रचनाओं का अवलोकन करते हुए वे सुखपूर्वक गगनवलभ नगर में पहुंच गये । वायुवेग विद्याधर ने अपने माता पिता से अपने उपर किये हुए शुकराज के उपकार का वणन किया। इससे उन्हों ने हर्षित हो उसके साथ अपनी वायुवेगा नामा कन्या की शादी कर दी। यद्यपि शुकराज को तीर्थयात्रा करने की बड़ी जल्दी थी, तथापि लग्न किये बाद अंतरंग प्रीतिपूवक अत्याग्रह से उसे उन्होंने कितने एक समय तक अपने घर पर ही रक्खा । एक दिन अट्ठाई म यात्रा का निश्चय करके देव के समान शोभते हुए साला और बहनोई (वायुवेग विद्याधर और शुकराज ) विमान में बैठकर तीर्थवंदन के लिए निकले। रास्ते में जाते हुए 'हे शुकराज ! हे शुकराज !' इस प्रकार किसी स्त्रो का शब्द सुनने में आया; इससे उन दोनों ने विस्मित हो उसके पास जाकर पूछा कि तू कौन है ? उसने जबाब दिया कि मैं चक्र को धारण करने वाली चक्रेश्वरी देवी हूं। गोमुख नामा यक्ष के कहने से मैं काश्मीर देश में रहे हुये शत्रुजय तीथ की रक्षा करने के लिए जा रही थी, रास्ते में क्षितिप्रतिष्ठित नगर में पहुंची तब वहां पर मैने उच्च स्वर से रुदन करता हुई एक स्त्री को देखा। उसके दुःख से दुखित हो मैं आकाशसे नीचे उतर कर उसके पास गई; अपने महल के समीप एक बाग में साक्षात् लक्ष्मी के समान परंतु शोक से आकुल व्याकुल बनी हुई उस स्त्री से मैंने पूछा है कमलाक्षी ! तुझे क्या दुःख है ? तब उसने कहा कि गांगिल नामक ऋषि शुकराज नामक मेरे पुत्र को शत्रुजय तीर्थ की रक्षा करने के लिए बहुत दिन हुये ले गया है, परन्तु उसका कुशल समाचार मुझे आजतक नहीं मिला । इसलिये मैं उसके वियोग से रुदन करती हूं। तब मैंने कहा हे भद्रे तू रुदन मत कर ! मैं वहां ही जा रही हूं। वहां से लौटते समय तुझे तेरे पुत्र का कुशल कहती जाऊंगी। इस प्रकार मैं उसे सांत्वना देकर काश्मीर के शत्रुजय तीर्थ पर गई, परन्तु वहांपर तुझे नहीं देख पाया इसले अवधिज्ञान द्वारा तेरा वृत्तांत जान कर मैं तुझे यहां कहने के लिए आई हूं । इसलिये हे विवक्षण ! तेरे वियोगसे पीड़ित तेरी माताको अमृत वृष्टि के समान अपने दर्शन देने रूप अमृतरस से शांत कर । जैसे सेवक स्वामी के विचारानुसार वर्तता है बसेही सुपात्र पुत्र, सुशिष्य और सपात्र बधू भी वर्तते हैं। माता पिता को पुत्र सुख के लिये ही होते हैं परंतु यदि