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संसार में जीवात्मा की इस भयंकर दशा को देखकर, तीर्थकर परमात्मा को दया आती है। तीर्थंकर परमात्मा तो करुणा के सागर हैं। जीवात्मा की इस दुःखभरी स्थिति को देख वे अत्यन्त ही करुणार्द्र बनते हैं और इस संसार में भटकती हुई आत्माओं के कल्याण के लिए शांत रस से भरपूर धर्मदेशना देते हैं। जिस धर्मदेशना के श्रवण से भव्यात्माओं को सन्मार्ग की प्राप्ति होती है और अन्त में वे परम-पद की भोक्ता बन जाती हैं।
_ 'तीर्थंकरों की वह कल्याणकारी वारणी तुम्हारा रक्षरण करे।' इस प्रकार विनयविजयजी म. आशीर्वादात्मक मंगलाचरण पूर्ण करते हैं।
पीठिका स्फुरति चेतसि भावनया विना ,
___ न विदुषामपि शान्तसुधारसः । न च सुखं कृशमप्यमुना विना , जगति मोहविषादविषाकुले ॥२॥
(द्रुतविलम्बितम् )
अर्थ-भावना के बिना विद्वानों के हृदय में भी शान्त-सुधारस (अमृत का रस) उत्पन्न नहीं होता है, जबकि मोह और विषाद रूपी विष से भरे हुए इस संसार में उसके बिना क्षणमात्र भी सुख नहीं है ॥ २॥
शान्त सुधारस विवेचन-५