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पूज्य उमास्वातिजी ने कहा है कि "मोह से अन्धी बनी आत्मा सुख को पाना चाहती है और दुःख का त्याग करना चाहती है, परन्तु मोहान्धता के कारण वह ज्यों-ज्यों प्रयत्न करती है, त्यों-त्यों दुःख के गहन सागर में ही डूबती जाती है ।" इस भीषण संसार में सुख की चाह से आत्मा इधर से उधर भटकती है । 'मधु - बिन्दु' तुल्य कल्पित सुखों में वास्तविक सुख मान बैठती है और चारों ओर से दुःख ही दुःख पाती है ।
जिस प्रकार जंगल में अत्यन्त कीचड़ के कारण आगे बढ़ना कठिन हो जाता है, उसी प्रकार इस संसार में भी मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग रूपी पाँच आस्रव सतत बरस रहे हैं । प्रस्रवद्वारों से कर्म का आत्म-भूमि में सतत प्रागमन होने से संसार रूपी जंगल सदैव हरा-भरा रहता है । जब तक वर्षा चालू रहती है, तब तक नई घास उत्पन्न होती रहती है । कर्म के सतत श्रागमन से आत्मा का भव-भ्रमरण रूप संसार सतत हरा-भरा रहता है |
नाना प्रकार की कर्म - लतानों से यह संसार-वन सघन बना हुआ है ।
यह संसार-वन अत्यन्त भीषण और गाढ़ तो है ही, इसके साथ मोह के गाढ़ अन्धकार से भी व्याप्त है । एक तो वन की भीषणता और दूसरी ओर अन्धकार ! ! अब केसे निकला जाय ?
इस संसार में भी मोह का गाढ़ अन्धकार है, अतः जीवात्मा को सही दिशा प्राप्त ही नहीं हो पाती है ।
ॐ प्रशमरति - श्लोक सं. ४० ।
शान्त सुधारस विवेचन- ४