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ध्रुव-अध्रुवरूपा बन्ध-उदय - सत्ता-सम्बद्धा प्रकृतियाँ ४३
नामकर्म की प्रकृतियों में अध्रुवबन्धिनी की पहचान
तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध सम्यक्त्व - सापेक्ष है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि सम्यक्त्व के होने पर तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध हो ही जाए। सम्यक्त्व के होने पर भी किसी के इसका बन्ध होता है, और अधिकांश व्यक्तियों के नहीं भी होता । इसलिए यह प्रकृति भी अध्रुवबन्धिनी है। पर्याप्तक - प्रायोग्य प्रकृतियों का बन्ध होने पर उच्छ्वास नामकर्म का बन्ध होता है, अपर्याप्तक- प्रायोग्य प्रकृतियों के बन्ध होने पर नहीं बंधता है । तिर्यञ्च - प्रायोग्य प्रकृतियों का बन्ध होने पर भी किसी को उद्योत नामकर्म का बन्ध होता है, किसी को नहीं होता है। इस कारण उच्छ्वास और उद्योत नामकर्म प्रकृतियाँ अध्रुवबन्धिनी हैं।
पृथ्वीकायिक- प्रायोग्य प्रकृतियों का बन्ध होते रहने पर भी किसी को आतप नामकर्म का बन्ध होता है, और किसी को नहीं होता । अतः यह भी अध्रुवबन्धिनी है। पराघात नामकर्म पर्याप्त - प्रायोग्य प्रकृतियों का बन्ध होने पर भी किसी-किसी को बंधुता है, किन्तु अपर्याप्त-प्रायोग्य प्रकृतियों का बन्ध होने पर तो किसी को भी नहीं बंधता है। इस कारण वह अध्रुवबन्धिनी है । १
इस प्रकार से अध्रुवबन्धिनी ७३ कर्मप्रकृतियों के कारणों का स्पष्ट प्रतिपादन है। तथा बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से ४७ ध्रुवबन्धिनी और ७३ अध्रुवबन्धिनी हैं। दोनों मिलकर कुल योग ४७+७३ = १२० होता है।
बन्ध और उदय प्रकृतियों की भंगों के माध्यम से विविध दशाएँ
कर्मबन्ध और कर्मोदय की कितनी दशाएँ होती हैं ? इस जिज्ञासा के समाधानार्थ भंगों के माध्यम से बन्ध और उदय की अवस्था में बनने वाले भंगों के नाम और . उनका स्वरूप सर्वप्रथम बतलाया जा रहा है।
भंगों के नाम इस प्रकार हैं- ( १ ) अनादि अनन्त, (२) अनादि सान्त, (३) सादि - अनन्त और (४) सादि सान्त ।
(१) अनादि अनन्त - जिस बन्ध और उदय की परम्परा का प्रवाह अनादिकाल से चला आ रहा है, बीच में न कभी विच्छिन्न हुआ है और न भविष्य में कभी विच्छिन्न होगा, ऐसे बन्ध या उदय को अनादि-अनन्त कहते हैं। ऐसा बन्ध या उदय अभव्य जीवों के होता है।
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ३, ४ विवेचन ( मरुधरकेसरी) पृ. १७ से २० तक (ख) कर्मग्रन्थ भा. ५ गा. ३, ४ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) पृ. ७ से ९ तक
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