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१०६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ उसी प्रकार अबाधाकाल पर्यन्त द्रव्यकर्म भोगयोग्य या फलदानयोग्य नहीं रहता। परन्तु उसके पश्चात् वही कर्म परिपक्व होकर जीव के गुणों में विकार एवं आवरण पैदा कर देता है तथा नये कर्मबन्ध के योग्य भोगादि आकर्षण भी। ___ जिस प्रकार पकने से पहले कच्चे आम वृक्ष पर अवश्य लगे रहते हैं, परन्तु वे भोज्य न होने से व्यक्ति की दृष्टि को आकर्षित नहीं कर पाते; इसी प्रकार उदय में आने से पहले वे अपरिपक्व बद्धकर्म भी सत्ता में अवश्य पड़े रहते हैं, परन्तु वे जीव में विकार, आवरण या अवरोध पैदा नहीं करते। जिस प्रकार वृक्ष पर लगा हुआ . कच्चा आम भोगा नहीं जा सकता, परन्तु पकने पर खाने के लिए लोग तोड़ लेते हैं, उसी प्रकार सत्ता में पड़ा हुआ कर्म भोगा नहीं जाता, वह जब उदय में आकर फलाभिमुख होता है, तभी उसका फल भोगा जाता है, फल भुगताकर कर्म झड़ जाता है। अतः कर्म सत्ता में हो तब योग और कषाय से दूर रहने का तथा यथाशक्ति ज्ञाता-द्रष्टा बने रहने का प्रयत्न करे एवं उदय में आने पर जगत् को, मानवजाति को तथा प्राणिजगत् को आत्मवत् समझ कर मोह और क्षोभ से विहीन होकर समता और शमता पूर्वक जीवन-यापन करे। यही सत्तावस्था और उदयावस्था का प्रेरणापथ है।
अबाधाकाल क्या, कैसे और कितना-कितना? कर्म सत्ता में तभी तक रहता है, जब तक उसका नियत अबाधाकाल पूर्ण नहीं होता। अबाधाकाल क्या है? इसे भी समझ लेना आवश्यक है। कर्म बंधने के पश्चात् जितने समय तक आत्मा को किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचता, अर्थात् उदय में नहीं आता, यानी बद्धकर्म अपना शुभाशुभ फल चखाने या फल का वेदन कराने को उद्यत नहीं होता, उतने काल को अबाधाकाल कहते हैं। जितने समय तक पूर्वबद्ध कर्म सत्ता में रहता है, उतने समय तक अबाधाकाल रहता है। जिस कर्म का जितना अबाधाकाल होता है, उसके पूर्ण होने पर ही वह कर्म अपना फल देना शुरू करता है। अबाधाकाल दो तरह से पूर्ण होता है-स्वाभाविकरूप से और अपकर्षण (अपवर्तना) द्वारा। इन दोनों उपायों में से किसी भी उपाय से अबाधाकाल पूरा हो जाने पर कर्म उदय में आता है, फलाभिमुख होकर फल देना प्रारम्भ करता है। ___ अबाधाकाल कर्मों की स्थिति के अनुसार कम-ज्यादा होता है। जैसे-अधिक नशीली मदिरा अधिक समय में सड़कर बनती है, और कम नशे वाली मदिरा कम समय में सड़कर। उसी प्रकार अधिक स्थिति वाले कर्मों का अबाधाकाल अधिक और कम स्थिति वाले कर्मों का अबाधाकाल कम होता है। कर्मशास्त्रानुसार एक
१. कर्मसिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी) पृ. ९४, ९५
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