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मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें २९७ वस्तुतः गुणस्थान मोह के तापमान की डिग्रियों को
बताने वाला थर्मामीटर है विकास मार्ग की इन क्रमिक अवस्थाओं को-गाढ़बन्ध से लेकर क्रमशः उसका ह्रास एवं क्षय होते-होते चरम आध्यात्मिक विकास की दशाओं को जैन-कर्मविज्ञान की भाषा में गुणस्थान कहते हैं। वैसे तो एक ही जीव की एक-एक भव में संख्यातीत अवस्थाएँ होती हैं, तब अनन्त-अनन्त सांसारिक जीवों की अवस्थाओं की गणना करना या उनकी नाप-जोख करना प्रायः कठिन है। अतएव कर्मविज्ञान पुरस्कर्ता सर्वज्ञ तीर्थंकरों ने इन सब अवस्थाओं को १४ भागों में वर्गीकृत किया है। इन्हीं चौदह विभागों को चौदह गुणस्थान कहा गया है। इनका स्वरूप, लक्षण, कार्य तथा अधिकारी आदि का विशिष्ट ज्ञान प्रत्येक आत्मार्थी मुमुक्षु को होना आवश्यक
चौदह गुणस्थानों का स्वरूप, स्वभाव, कार्य और गुण-प्राप्ति - (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान : स्वरूप, कार्य और अधिकारी
मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से जिस जीव की जीव-अजीव आदि पदार्थों या तत्वों के प्रति दृष्टि (श्रद्धा या प्रतिपत्ति) विपरीत या मिथ्या हो जाती है, वह जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है। व्यक्त मिथ्यात्व में रहने वाली आत्मा की अवस्था-विशेष को मिथ्यात्व (मिथ्यादृष्टि) गुणस्थान कहते हैं। प्राणी में जब आत्मकल्याण के साधनमार्ग की यथार्थ दृष्टि न हो, उलटी ही समझ हो, अज्ञान (मिथ्याज्ञान) हो, या भ्रान्ति हो, तब वह इस गुणस्थान में परिगणित होता है। जिस प्रकार पीलिया के रोगी को सफेद वस्तुएँ भी पीली दिखाई देती हैं, उसी प्रकार मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के प्रभाव से मिथ्यात्वी जीव कुदेव को सुदेव मानता है, कुगुरु पर गुरुबुद्धि रखता है,
और जो सत्य-अहिंसादि धर्मों के लक्षणों से रहित है, उसे सद्धर्म मानता है। दूसरे शब्दों में कहें तो, जो सत्पुरुषों को असत्पुरुष और असत्पुरुषों को सत्पुरुष मानता है, तथा कल्याण को अकल्याण और अकल्याण को कल्याण एवं उन्मार्ग को सन्मार्ग एवं सन्मार्ग को उन्मार्ग समझता है। इसी प्रकार अनात्म (निर्जीव) तत्वों में आत्मबुद्धि हो और आत्मा और आत्म-गुणों में परबुद्धि यानी आत्मदृष्टि या आत्मभावना न हो, वहाँ मिथ्यात्व गुणस्थान समझना चाहिए। इसी प्रकार देव-गुरु-धर्मलोक-सम्बन्धी समस्त मूढ़ताओं में बहना, मिथ्या रीतिरिवाज, हिंसक कुप्रथाएँ एवं अन्धविश्वास आदि को मानना भी मिथ्यात्व है।
१. कर्मग्रन्थ भा. ३ (पं० सुखलालजी) प्रस्तावना, पृ०८
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