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गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता-उदय-उदीरणा प्ररूपणा ४३१ हो जाने से नौवें गणस्थान में बन्धयोग्य १८ प्रकृतियों में से संज्वलन लोभ कम कर देने से दसवें गुणस्थान में १७ प्रकृतियों का ही बन्ध होता है।
यद्यपि दसवें गुणस्थान में बन्ध के वास्तविक कारण स्थूल लोभ-कषाय का उदय नहीं रहता है, किन्तु सूक्ष्म-सा लोभकषाय रहता है, जो बन्ध का कारण नहीं है। फिर भी कषाय का अतिसूक्ष्म अंश दसवें गुणस्थान में है ही। इसलिए बन्ध के हेतुभूत कषाय और योग के वहाँ रहने से कषाय-निमित्त दर्शनावरणीय चतुष्क (चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण), उच्चगोत्र, यश:कीर्तिनाम, ज्ञानावरण-पंचक (मतिज्ञानावरण से केवलज्ञानावरण तक), अन्तराय-पंचक (दानान्तराय आदि पांच), ये १६ प्रकृतियाँ और योगनिमित्तक सातावेदनीय, यों कुल १७ प्रकृतियों का बन्ध दशवें गुणस्थान में होता है। (११-१२-१३) ग्यारहवें उपशान्तकषाय-वीतराग-छद्मस्थ, बारहवें क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ और सयोगि-केवली, इन तीन गुणस्थानों में सिर्फ योगनिमित्तक सातावेदनीय प्रकृति बन्धयोग्य रहती है, क्योंकि दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में सूक्ष्म कषायांश के भी नष्ट हो जाने से तन्निमित्तक दर्शनावरणचतुष्क आदि पूर्वोक्त १६ प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद हो जाता है, किन्तु योग का सद्भाव है, इसलिए ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें, इन तीन गुणस्थानों में योग निमित्तक सिर्फ सातावेदनीय का बन्ध होता है।
१. (क) अडवन्न अपुव्वाइमि निद्ददुगंतो छपन्न पणभागे ।
सुरदुग पणिंदि सुखगइ तसनव उरलविणु तणुवंग ॥९।।। समचउर निमिण जिण वण्ण-अगुरुलहु-चउ छलंसि तीसंतो । 'चरमे छवीसबंधो हास-रई-कुच्छ-भय-भेओ ॥१०॥ अनियट्टि भाग-पणगे इगेगहीणो दुवीस विहबंधो । ..
पुमसंजलणचउण्हं कमेण छेओ सत्तर सुहमे ॥१॥ -कर्मग्रन्थ भा. २ (ख) कर्मग्रन्थ भा. २ गा. ९, १०, ११ विवेचन (मरुधरकेसरी), पृ. ६५ से ६८ तक (ग) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १६६ . (घ) तुलना करें-मरणूणम्हि णियट्टी पढमे, णिद्दा तहेव पयला य ।
छठे भागे तित्थं णिमिणं सग्गमण-पंचिंदी ॥१९॥ तेजदुहार दुसम चउ सुर वण्णागुरुचउक्क-तसणवयं । चरमे हस्सं च रदी भयं जुगुच्छा य बंधवोच्छिण्णा ॥१०॥ पुरिसंचदु संजलणं कमेण अणियट्टि पंचभागे ॥१०१॥ -गोम्मटसार कर्मकाण्ड
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