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४४२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ प्रकृतियों की सत्ता रहती है। वे १३ प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-(१-३) मनुष्यत्रिक (मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु) (४ से ६) त्रसत्रिक (त्रस, बादर और पर्याप्त नामकर्म), (७) यश:कीर्तिनामकर्म, (८) आदेय नामकर्म, (९) सुभग नामकर्म, (१०) तीर्थंकर नामकर्म, (११) उच्चगोत्र, (१२) पंचेन्द्रिय जाति नामकर्म, (१३) सातावेदनीय या असातावेदनीय, दोनों में से कोई एक। इन १३ प्रकृतियों का क्षय (अभाव, अन्त या नाश) भी चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता. है? और आत्मा कर्मरहित होकर सर्वथा मुक्त बन जाता है। ___ यह एक सामान्य नियम है कि कारण के अभाव में कार्य का भी सद्भाव नहीं .. रहता। अतः पहले के गुणस्थानों में जिन कर्मप्रकृतियों का क्षय हुआ, उनके बन्ध, उदय और सत्ता के प्रायः प्रमुख कारण मिथ्यात्व, अविरति और कषाय हैं। पूर्व-पूर्व के गुणस्थान की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के गुणस्थानों में मिथ्यात्व आदि कारणों का क्रमशः अभाव होता जाता है। अतः जब वे मिथ्यात्वादि कारण नहीं रहे, तो उनके सद्भाव में बन्ध, उदय और सत्तारूप में रहने वाले कर्म भी नष्ट हो जाते हैं, नहीं रह पाते। ___ बारहवें गुणस्थान में मोहनीयकर्म का सर्वथा क्षय हो जाता है। अतः सत्तायोग्य प्रकृतियों में मोहनीय कर्म की प्रबलता से बंधने वाली, उदय होने वाली और सत्ता में रहने वाली कर्मप्रकृतियाँ नहीं रहती हैं। मोहनीय कर्म के कारण ही ज्ञानावरणीय और अन्तराय की पांच-पांच और दर्शनावरणीय की चक्षुर्दर्शनावरण आदि चार मिलकर कुल १४ प्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्ता की संभावना रहती है। अतः मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का सर्वथा क्षय हो जाने से पूर्वोक्त १४ प्रकृतियों का बन्ध, उदय और सत्तारूप में अस्तित्व नहीं रह पाता। यही कारण है कि बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अन्तराय-पंचक, इन १४ प्रकृतियों का क्षय हो जाता है। और फिर प्रतिबन्धक कारणों (कर्मों) के नष्ट होते ही
१. (क) पणसीइ सजोगि अजोगि दुचरिमे देव-खगइ-गंध-दुगं।
फासट्ठ-वण्ण-रस-तणु-बंधण-संघायण-निमिणं॥३१॥ संघयण-अथिर-संठाण-छक्क अगुरुलहु-चउ अपजत्तं । सायं व असायं वा परित्तुवंग-तिग-सुसरनियं॥३२॥ विसपरिखओ य चरिमे, ते रस मणुय-तस-तिग-जसाइजं।
सुभग-जिण च पणिंदिय तेरस साया-सासगयरछेओ॥ ३३।। (ख) द्वितीय कर्मग्रन्थ गा. ३१ से ३३ तक विवचेन (मरुधरकेसरी), पृ. ११७ से
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