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ऊर्ध्वारोहण के दो मार्ग : उपशमन और क्षपण ५२३ क्षीणकषाय गुणस्थान के काल के संख्यात भागों में से एक भाग काल बाकी रहने तक मोहनीय कर्म के सिवाय शेष कर्मों में स्थितिघात वगैरह पूर्ववत् होते हैं। उसमें पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण , पांच अन्तराय और दो निद्रा (निद्रा और प्रचला), इन सोलह प्रकृतियों की स्थिति को क्षीणकषाय के काल के बराबर करता है। किन्तु निद्राद्विक की स्थिति को एक समय कम करता है। इनकी स्थिति के बराबर होते ही इनमें स्थितिघात आदि (पंचविध) कार्य होने बन्द हो जाते हैं किन्तु शेष प्रकृतियों के ये होते रहते हैं। क्षीण कषाय के उपान्त समय में निद्राद्विक का क्षय करता है। और शेष चौदह प्रकृतियों का अन्तिम में क्षय करता है। तत्पश्चात् उसके अनन्तर समय में वह सयोगिकेवली हो जाता है।
(पृष्ठ ५२२ का शेष)
अर्थात्-उपशम श्रेणि में अनन्तानुबन्धी की सत्ता (सत्व) नहीं होती, और क्षपक अनिवृत्तिकरण पहले ८ कषायों का क्षपण करके पश्चात् १६ आदि प्रकृतियों
का क्षपण करता है; ऐसा कोई कहते हैं। (ख) पंचसंग्रह के अनुसार-स्त्रीवेद के उदय से श्रेणि चढ़ने पर पहले नपुंसकवेद का
क्षय होता है, फिर स्त्रीवेद का और तदनन्तर पुरुषवेद व हास्यादि छह का क्षय होता है। नपुंसकवेद के उदय से श्रेणि चढ़ने पर नपुंसकवेद और स्त्रीवेद का एक साथ क्षय होता है। उसके बाद पुरुषवेद और हास्यादिषट्क का क्षय होता है। देखें वह गाथाइत्थी-उदए नपुंसं इत्थीवेयं चं सत्तगं च कमा।
अपुमोदयंमि जुगवं नपुंस-इत्थी पुणो सत्त॥ __-पंचसंग्रह गा. ३४६ (ग) गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. ३८८ में भी यही क्रम बताया है। १. (क) पंचम कर्मग्रन्थ, क्षपक श्रेणिद्वार व्याख्या (मरुधरकेसरीजी), पृ. ३९३, ३९४ ..' (ख) देखें-विशेषावश्यक भाष्य में इस क्रम का चित्रण
दसण-मोह-खवणे णियट्टि-अणियट्टि बायरो परओ। . जाव उ सेसो संजलणलोभमसंखेज भागोत्ति॥ १३३८॥ तदसंखिजइ भागं समए समए खवेइ एक्ककं। तत्थइ सुहमरागो लोभाणू जावमेक्को वि॥ १३३९॥ खीणे खवगनियंठो वीसमए मोहसागरं तरिउं। अंतोमुत्तमुदहि तरिउं थाहे जहा पुरिसो॥ १३४० ॥ छउमत्थकाल-दुचरिमसमए निदं खवेइ पयलं च। चरिमे केवललाभो खीणावरणान्तरायस्स॥ १३४१॥
(शेष पृष्ठ ५२४ पर)
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