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- रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५८५ उसके लिए ऐसा कौन-सा मार्ग है या उपाय है, जिससे वह रागद्वेष का क्रमशः त्याग करके दोनों बन्धनों से मुक्त हो सके?
राग कहाँ तक व्यक्त, अव्यक्त या क्षीण? एक बात यह भी है कि राजवार्तिक के अनुसार-अप्रमत्तगुणस्थान तक (यानी सप्तम गुणस्थान से पहले पहले) रागभाव व्यक्तरूप में होता है, उससे ऊपर के गुणस्थानों में क्षीणकेषाय नामक बारहवें गुणस्थान से पहले तक रागभाव अव्यक्त होता है। आशय यह है कि जब तक अनुभव में मोह का उदय रहता है, वहाँ तक व्यक्तरूप इच्छा है और जब मोह का उदय अतिमंद हो जाता है, तब वहाँ इच्छा नहीं दिखती और जहाँ मोह का उपशम या क्षय हो जाता है, वहाँ इच्छा का अभाव होता है। सैद्धान्तिक दृष्टि से देखें तो रागभाव चारित्रावरण कर्म के उदय से होता है तथा ऐसा राग अप्रमत्तगुणस्थान के पहले तकं पाया जाता है। अप्रमत्त गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में इसका सद्भाव (व्यक्तरूप में) नहीं पाया जाता। वहाँ केवल अव्यक्त कषाय की अपेक्षा से कषायों के अस्तित्व का व्यपदेश किया गया है। पंचाध्यायी (उ.) में इसका तात्पर्य प्रकट किया गया है कि ऊपर के गुणस्थानों में अबुद्धिपूर्वक सूक्ष्मराग होता है। यह अबुद्धिपूर्वक सूक्ष्म राग भी क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान से पहले तक होता है। अर्थात्-सातवें से दसवें गुणस्थान तक होने वाला यह रागभाव सूक्ष्म होने से बुद्धिगम्य नहीं है।
रागभाव बन्धका कारण और मोक्ष का प्रतिबन्धक . इस पर से यह तो नहीं कहा जा सकता कि ऊपर के गुणस्थानों में रागभाव बन्धनकारक नहीं है अथवा हेय नहीं है; क्योंकि 'मोक्षप्राभृत' में कहा है-"रागभाव मोक्ष का निमित्त हो तो भी आस्रव (बन्ध) का ही कारण है। मोक्ष के विषय में भी की गई चिन्ता या अभिलाषा दोषरूप होने से विशेषरूप मोक्ष (कर्ममुक्ति) की
. १. (क) राजवार्तिक (हिन्दी) ९/४४/७५७-७५८ (ख) अस्त्युक्तलक्षणो रागश्चारित्रवरणोदयात्। अप्रमत्त-गुणस्थानादर्वाक् स्यानोलमस्त्यसौ।
___-पंचाध्यायी (उत्तरार्ध) ९१० _ . (ग) अस्ति चोर्ध्वमसौ सूक्ष्मो रागश्चाबुद्धिपूर्वकः। अर्वाक् क्षीणकषायेभ्यः स्याद् विवक्षावशान वा।
__-पंचाध्यामी (उ.) ९११ - (घ) राजवार्तिक (हिन्दी) ९/४४/७५८ (ङ) यतीनामपूर्वकरणादीनां कथं कषायास्तित्वमित्ति चेन्न, अव्यक्त-कषायापेक्षया तथोपदेशात्।
-धवला १/१, १, १/११२/३५१
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