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५९२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ गति-प्रगति करने का पुरुषार्थ जारी रखना चाहिए। यदि इतना भी न हो सके तो अशुभ-मलिन अध्यवसाय वाले रागद्वेष को सर्वथा छोड़कर सदैव प्रशस्त शुभ अध्यवसाय वाले रागद्वेष को अपनाना हितकर है; क्योंकि अशुभ अध्यवसाय वाले रागद्वेष की अपेक्षा शुभ अध्यवसाय वाले रागद्वेष शिथिल और अल्पस्थिति वाले बन्धनकारक होते हैं। ' इस प्रकार वीतरागता प्राप्त करने के लक्ष्य को सदैव दृष्टिगत रखकर राग और द्वेष
की परिणतियों से बचता हुआ, वीतरागता का अभ्यास करता हुआ क्रमशः सही दिशा में अग्रसर हो तो एक दिन अवश्यमेव वीतरागता प्राप्त कर सकता है। राग-द्वेष को सदैव बन्धनकारक समझते हुए ऐसे साधक को प्रतिपल सावधान रहना है, तभी वह लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ सकता है।
१. कर्म की गति न्यारी से भावांशग्रहण, पृ. २३
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