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५५२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
सफल होता है। इसी नियमानुसार अशुभ ऋणानुबन्ध का संचय भव-भव में द्वेषयुक्त अशुभ सांसारिक सम्बन्ध जारी रखने से उत्पन्नं होता है। उक्त संचय का बल बढ़ जाने पर वह उदय में आकर कटु फलरूप बनता है।
उत्कृष्ट शुभ ऋणानुबन्ध के बलसंचय के उदय से अत्यन्त उच्चतम आत्मदशा का पावन लाभ और तत्पश्चात् तमाम ऋण चुकता हो जाने पर जाज्वल्यमान ज्योतिस्वरूप परम देदीप्यमान मुक्ति के साथ पवित्र सम्बन्ध स्थापित होने का लाभ एवं अत्यन्त शाश्वत अव्याबाध सुख, आनन्द और शान्ति (निर्वाण) के उपभोग का अचिन्त्य योग अनायास ही मिल जाता है।
उत्कृष्ट अशुभ ऋणानुबन्ध के बल-संचय के उदय से अधिकांश सांसारिक दुःख, वेदना और त्रिविध ताप (संताप) भोगने पड़ते हैं। फिर तो आत्मा स्वभाव से शुद्ध, पवित्र, निर्मल और अखण्ड ज्ञानरूप होने पर भी उत्तरोत्तर नीचे से नीचे उतरता जाता है। पापकर्मों का संचय और भार बढ़ने से उनके उदय में आने पर नरकगति के तीव्र दुःख भोगने पड़ते हैं। ऐसी आत्माओं को फिर उच्च दशा प्राप्त करने में अत्यन्त दीर्घकाल व्यतीत करना पड़ता है।
ऋणानुबन्ध का नियम अटल और अबाधित ऋणानुबन्ध के इस वर्णन पर से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि ऋणानुबन्ध का नियम और उसका फल अटल, अबाधित और अपरिवर्तनीय है। उससे भागा या छटका नहीं जा सकता और न ही वहाँ किसी की सिफारिश, मुलाहजा, लिहाज, धन या सत्ता की रियायत रिश्वत चल सकती है। जैसा-जैसा ऋण होता है, उसके अनुसार उदय में आने पर उसका वैसा-वैसा फलभोग करना पड़ता है। कर्मविज्ञान के शब्दों में कहें तो तीर्थंकर देवों का कथन है-'जिस रस (परिणाम) से बांधोगे, उसी रस से उसे भोगना पड़ेगा।' नरेन्द्र, सुरेन्द्र या नागेन्द्र भी इस ऋणानुबन्ध (शुभाशुभ कर्मबन्ध-परम्परा) के उदय के अनुसार फल को अफल करने में समर्थ नहीं हैं। ऋणानुबन्ध की ऐसी विचित्रता है कि वह चाहे जब, चाहे जिस घड़ी में, चाहे जिस क्षेत्र में, चाहे जैसे संयोगों में, चाहे जैसे सम्बन्ध हों, रात या दिन देखें बिना, जाति-पांति का विचार किये बिना, उच्च-नीच के भेद को लक्ष्य में लिये बिना उदय में आ जाता है। ऋणानुबन्ध के उदय के कतिपय विचित्र प्रसंग देखे जाते हैं कि वे नीति-धर्म की मर्यादाओं, आचारसंहिताओं के मूल को उखाड़ने वाले तथा सामाजिक एवं कौटुम्बिक नियम-विधानों के दुर्ग को भी तोड़ने वाले सिद्ध होते हैं।
१. ऋणानुबन्ध से साभार अनूदित, पृ.८७ से ९३ तक-
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