Book Title: Karm Vignan Part 05
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 573
________________ ऋणानुबन्ध : स्वरूप, कारण और निवारण ५५३ अतीत में ऐसे अनेक प्रसंग बने हैं, जिनका वर्णन जैन कथानुयोग में अत्यन्त स्पष्टरूप से मिलता है। वर्तमान में ऐसे प्रसंग प्रायः घर - घर में और परिवार - परिवार में बनते देखे जा सकते हैं; भविष्य में भी बनेंगे, क्योंकि सर्व वैभाविक भाव अनादि-अनन्त हैं । १ ऋणानुबन्ध के नियमों को जानने से बद्धकर्मों का निरोध और क्षय आसान ऋणानुबन्ध के नियम और उदय का ज्ञान जीव को सतत स्मरण रहे और उसे उपयोग में लिया जाए तो वह आत्मा के लिए अत्यन्त हितकर और उपकारक हो सकता है। वह ज्ञान दुःख के गहरे गर्त में पड़े हुए जीव को उस दुःख की खाई में डालने वाले द्वेष, वैर - विरोध, कलह, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, छल, निन्दा, ठगी, लोभ, काम, क्रोध, हिंसा, असत्य, चोरी, ममता-मूर्च्छा, आसक्ति आदि अशुभभावों से ( तथा उनको लेकर होने वाली अशुभ प्रवृत्तियों से) रोकने तथा उन्हें मन्द करने वाला या उन पर नियंत्रण करने वाला अथवा उनसे वापस लौटाने वाला या उनसे बचाने वाला बनता है । तदुपरान्त क्षमा, मृदुता, सरलता, सत्यता, समता, दया, सहिष्णुता, पवित्रता, संयम, मौन, अप्रतीकार, अविरोध, अप्रमत्तता आदि गुण प्रकट करके आत्मा में चारित्रदशा विकसित करके अधिकाधिक उच्च पद पर ले जाता है। उदाहरणों पर मनन करके स्थिरबुद्धि बनें जैसे गजसुकुमाल मुनि का सोमल विप्र के साथ ९९ लाख भव पूर्व का अशुभ ऋणानुबन्ध था, उसके उदय में आने पर सोमल द्वारा दिये गए मारणान्तिक उपसर्ग (कष्ट) को समभाव से सहकर, वे सर्वकर्म - बन्धनों को काटकर मुक्ति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गए। इस प्रकार अशुभ ऋणानुबन्ध के समय विरोधी द्वारा जो भी उपसर्ग, कष्ट या सन्ताप आए, उसे समभाव से सह लेने में ही आत्मा को शाश्वत सुख-शान्ति प्राप्त हो सकती है। ऋणानुबन्ध के नियमों को जानने से लाभ ऋणानुबन्ध के नियमों को जो जान समझ लेता है, उनको यथार्थ रूप से उपयोग में लेता है; उसे स्वपर से सम्बन्धित ऋणानुबन्ध के उदय की चाहे जितनी विकटता या विचित्रता हो, तो भी आश्चर्य नहीं होता। उसकी चित्तवृत्ति सम्यक् देवाधिदेव, (आत्मा-परमात्मा), सद्गुरु एवं सद्धर्म से जरा भी विचलित या स्खलित नहीं होती । १. ऋणानुबन्ध से साभार अनूदित, पृ. ९२, ९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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