Book Title: Karm Vignan Part 05
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

Previous | Next

Page 588
________________ ५६८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ जहाँ राग, वहाँ द्वेष और जहाँ द्वेष वहाँ राग प्रायः होता ही है जहाँ राग होता है, वहाँ द्वेष पहले तो सोया हुआ - प्रच्छन्न रहता है, बाद में प्रगट हो जाता है। इसलिये 'ज्ञानार्णव' में कहा गया है यत्र रागः पदं धत्ते, द्वेषस्तत्रेति निश्चयः । उभावेतौ समालम्ब्य विक्राम्यत्यधिकं मनः ॥१ 'जहाँ राग अपना पैर रखता है, यानी प्रवेश करता है, वहाँ द्वेष अवश्य ही होता है । राग और द्वेष, दोनों का अवलम्बन लेने से मन अत्यधिक विकृत हो उठता है। मनुष्य यह सोचता है कि मैं तो अपने धर्मसम्प्रदाय, अमुक गुरु, या अमुक भगवान् के प्रति भक्ति कर रहा हूँ, परन्तु कई बार जहाँ अपने माने हुए धर्म सम्प्रदाय, गुरु तथा भगवान् के प्रति रागभाव होता है, वहीं दूसरे धर्मसम्प्रदाय, अन्य गुरु या अन्य नाम वाले भगवान् के प्रति द्वेष होता है । जहाँ भी किसी ने उसके सम्प्रदाय, गुरु या भगवान् के विषय में कुछ आलोचना की, अथवा यथार्थ स्वरूप भी बताया अथवा देव-गुरु- धर्म - मूढ़ता का परित्याग करने का कहा, वहाँ वह भड़क कर उस सम्प्रदाय, गुरु या धर्म के प्रति द्वेष और घृणा करने लगता है। यहाँ तक कि वह अन्य धर्म, सम्प्रदाय, गुरु या भगवान् को द्वेषवश नष्ट करने, उनको बदनाम करने या लांछन लगाने को तुल जाता है। इसलिए कहना होगा कि राग और द्वेष परस्पर सहभावी हैं। इतना ही नहीं, कभी-कभी राग और द्वेष विभिन्न पैंतरे बदल कर आते हैं। इसीलिए एक आचार्य ने कहा है- ' रागाद् द्वेषं, द्वेषाद् रागं, पुनः रागं पुनः द्वेषं गृह्णाति मनुजः सदा ।' अर्थात् - राग से द्वेष को, द्वेष से राग को, 'पुनः राग को और फिर द्वेष को मनुष्य सदा ग्रहण करता रहता है। राग और द्वेष के विविध रूपान्तर और विकल्प जिस तरह समुद्र का पानी भाप बनकर आकाश में पहुँच कर 'बादल बन जाता है, वही बादल बरस कर पानी बन जाता है। वही पानी नदी-नालों द्वारा समुद्र में • आता है। समुद्र से फिर भाप, बादल, पानी और उसका समुद्र में आगमन होता है। ठीक इसी तरह राग का वातावरण द्वेष में परिणत हो जाता है और द्वेष का वातावरण पुनः राग में परिवर्तित हो जाता है। इसी प्रकार राग का अधिक राग में और द्वेष का अधिक द्वेष में भी परिवर्तन होता है । तथैव अधिक राग का स्वल्प राग में और १. (क) तुलना करें - तद्यथा न रतिः पक्षे, विपक्षेऽप्यरतिं विना । नारतिर्वा स्वपक्षेऽपि तद्विपक्षेरतिं विना ॥ (ख) ज्ञानार्णव २३/२५ Jain Education International - पंचाध्यायी (उ.) श्लोक ५४९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614