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५६६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
राग हो या द्वेष : अन्त में दुःखदायक ही हैं.
एक छोटा-सा उदाहरण ले लें। एक व्यापारी है। उसे व्यापारिक जगत् में नाम कमाने की इच्छा हुई। उसने जगह-जगह प्रचार किया। व्यापारी लोगों से स्वार्थवृत्तियुक्त मिलनसारी रखी, स्नेह-प्रदर्शन किया। उसे आशा बंध गई कि सभी व्यापारी मुझे नेता बनाएँगे, या उच्च पद मुझे मिल जाएगा, परन्तु जब व्यापारिक संस्था का चुनाव हुआ तो वह पद किसी दूसरे योग्य, ईमानदार एवं वात्सल्य प्रेमी व्यापारी को मिल गया। अब उसका प्रेम या स्नेह जिस व्यापापिक संस्था के नेता या अध्यक्ष पद की तथा सम्मानप्राप्ति की जो इच्छा या लालसा थी, वह सब भंग हो गयी। मानसिक शान्ति भंग हो गई। मन के अनुकूल न होने से दुःख हुआ और जिस व्यक्ति को नेता पद या सम्मान मिला, उसके प्रति ईर्ष्या, वैमनस्य और द्वेष हों गया। उक्त संस्था के प्रति मन ही मन घृणा हो गई। द्वेषवृत्ति बढ़ जाने से व्यापारी लाला की नींद हराम हो गई, रातें बिस्तर पर करवट लेते-लेते पूरी होने लगीं। मन में उचाट हो गया। राग, द्वेष, अशान्ति, दुःख, कर्मबन्ध, कर्म के उदय में आने पर दुःख इस प्रकार का विषचक्र चलने लगा।
रागद्वेषयुक्त कोई भी प्रवृत्ति परिणाम में दुःखदायक होगी
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वस्तुतः दुःख का मूल कारण यदि खोजा जाय तो राग और द्वेष ही है। बहुधा मानव राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति को सुखरूप मानता हैं और उसमें जब बार-बार प्रवृत्त होता है, तब उससे अरुचि, घृणा, दुःख, आकुलता आदि उत्पन्न होती है। सुखप्राप्ति के लिए ज्यों ही राग या द्वेष का आश्रय लिया जाता है, त्यों ही सुखशान्ति दूरातिदूर होती जाती है। एक उदाहरण लें - एक लड़की बहुत ही उमंग से विवाह करती है,. यह सोचकर कि विवाह के बाद मैं बहुत सुखी हो जाऊँगी। परन्तु परिणाम उसकी कल्पना के विपरीत आता है। पति के साथ अनबन, बात-बात में संघर्ष, पति का शराब और जूए में बर्बाद होना। पहले वाला अनुरागी प्रियतम उसके लिए अंगारे सम दाहक व दुःखदायक बन जाता है। पति के प्रति तीव्रराग (मोह) अब उसके लिए दुःख का पहाड़ बनकर छा जाता है। लोहे के चने चबाने जैसे दुःखदायी दिवस प्रतीत होते हैं ।
द्वेष भी विभिन्न रूपों में प्रकट होता है, परिणाम में दुःखदायी है
इसी प्रकार द्वेष के वश भी मनुष्य किसी को बदनाम कर देता है, किसी पर मिथ्या दोषारोपण कर देता है, किसी की निन्दा, चुगली करता है, किसी को नीचा दिखाकर और अपनी उत्कृष्टता की डींग हांकता है, द्वेषवश किसी को डांटता
१. कर्म तेरी गति न्यारी भा. ८.
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