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रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे . ५८१. सम्यग्दर्शनादि शुद्ध धर्म किया जाए तो उनका सत्त्व नष्ट हो जाता है, धर्म के नाम पर किये जाने वाले आडम्बर, प्रदर्शन या शुष्क क्रियाकाण्ड ही बचते हैं; जो कर्मक्षय के लिए निरर्थक होते हैं । ज्ञानसार अष्टक में कहा गया है- यदि मन-मस्तिष्क में रागद्वेष तीव्ररूप में विद्यमान हैं तो उनकी उपस्थिति में या उनकी तीव्रावस्था में किये गए बाह्य-आभ्यन्तर तप से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ?? दूसरे शब्दों में कहें तो तीव्र - रागद्वेष की स्थिति में किया हुआ तप निरर्थक जाता है, कर्ममुक्तिरूप प्रयोजन उस स्थिति में सिद्ध नहीं होगा। और इससे ठीक विपरीत यदि रागद्वेष नाममात्र को नहीं हैं, वीतरागता प्राप्त हो चुकी है, तब भी बाह्यान्तर तप करने का क्या प्रयोजन? जिस कर्मक्षय के उद्देश्य से तप किया जाता है, वह सिद्ध हो जाने पर तप की जरूरत नहीं रहती । इस प्रकार रागद्वेष की विद्यमानता और अविद्यमानता, दोनों ही अवस्थाओं में तपश्चरण की निष्प्रयोजनता सिद्ध होती है । २
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ज्ञानादि पंचाचार की साधना तीव्र रागद्वेष सहित है तो निरर्थक है समग्र जैन साहित्य राग-द्वेष के विरोध में खड़ा है। जैन धर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है। फलतः उसने समग्र साधनाओं में रागद्वेष से निवृत्ति पर ही अत्यधिक बल दिया है। आचार्य मुनिचन्द्र ने भी यही कहा है- 'रागद्वेष को घटाए या मिटाए बिना सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप की साधना निरर्थक है । उस साधना का कोई अर्थ नहीं है, जिसके साथ राग-द्वेष ओतप्रोत हों। "३
तीव्र रागवश किये गए नियाणे के साथ किया गया तप तथा रत्नत्रयरूप शुद्धधर्म कर्मक्षयकारक नहीं होता, अपितु नियाणे को सफल करने और कर्मबन्ध से संसारवृद्धि करने में सहायक होता है। इसी प्रकार तीव्र द्वेष से प्रेरित होकर किये गए निया के साथ किये गये तप की या अन्य पंचाचार की साधना कर्मनिर्जराकारिणी नहीं होती। बल्कि कषायवृद्धि और भववृद्धि करने में ही सहायिका होती है, और नियाणे को सफल करती है। संभूति मुनि के भव में तीव्र राग से प्रेरित होकर
१. (क) न इहलोगट्टयाए तवमहिट्ठिज्जा, न परलोगट्टयाए; न कित्ति - वन्न सद्दसिलोगट्टयाए तवमहिट्ठिज्जा, नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा ।
न इहलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठज्जा'' '' नन्नत्थ आरहंतेहिं हेऊहिं आयारमहिट्ठिज्जा। - दशवैकालिक ९/३/४५
(ख) रागद्वेषौ यदि स्याताम् तपसा किं प्रयोजनम् ?
तादेव रागद्वेषौ यदि न स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् ? २. कर्म की गति न्यारी, भा. ८ से भावांशग्रहण, पृ. १९, २० ३. रागद्वेषौ यदि स्यातां तपसा किं प्रयोजनम् ?
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- ज्ञानसार
- आचार्य मुनिचन्द्र
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