Book Title: Karm Vignan Part 05
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 600
________________ ५८० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ स्वभाव वाला है। इसलिए आग को शान्त करने या उस पर काबू पाने में जितनी सावधानी रखनी पड़ती है, उससे अनेकगुणी अधिक सावधानी द्वेष को शान्त करने या द्वेष पर काबू पाने में रखनी आवश्यक है । क्योंकि अग्नि उतनी हानि नहीं करती, जितनी हानि द्वेष करता है । अनि तो पानी से शान्त हो जाती है, जबकि द्वेष उपशम, क्षमा, मार्दव, आर्जव, समता या सहिष्णुता से शान्त होता है । इसलिए राग और द्वेष दोनों से आत्मा का बहुत नुकसान होते हुए भी द्वेष से अधिक नुकसान होता है ।१ राग-द्वेष से समस्त आत्मसाधनाओं की क्षति राग-द्वेष से सबसे बड़ी हानि तो आध्यात्मिक साधनाओं की होती है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्वारित्र, सम्यक्तप ये सब आध्यात्मिक साधना के लिए आचरणीय धर्म रागद्वेष की उपस्थिति में करने से संसारवृद्धि के कारण बनते हैं, कर्मक्षय और संसार के हास के कारण नहीं। जब अन्तर्मन में राग अपना डेरा डाले रहता है, तब व्यक्ति इहलौकिक राग ( स्वार्थ या मोह), पारलौकिक राग (फलाकांक्षा) कीर्ति, प्रशंसा और प्रसिद्धि के राग (लोभ), के चक्कर में पड़ेकर : अपने आत्मशुद्धि-साधनरूप शुद्धधर्म को चौपट कर डालता है। इन सब रागजनित सौदेबाजियों में पड़कर साधना को विकृत कर डालता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और आत्मशान्ति के आचरण को ताक में रखकर इनका दिखावा, प्रदर्शन, दम्भ, स्वार्थसिद्धि एवं फलाकांक्षा की तराजू पर इन्हें बार-बार तौलता रहता है। इसी प्रकार आत्मसाधना करते समय साधना के लिए अनिवार्य वस्तुं तप, कायकष्ट सहन, परीषहसहन एवं उपसर्ग आदि से उद्विग्नता, घृणा, अरुचि आदि के रूप में द्वेष आ धमकता है, अथवा अनिष्ट वस्तु की तरह अनिष्ट व्यक्ति के प्रति या साम्प्रदायिकतावश अन्य सम्प्रदाय, जाति, राष्ट्र आदि के व्यक्ति के प्रति द्वेष भाव आ जाता है, ऐसी दशा में सम्यग्दर्शनादि कर्मक्षयकारक चतुष्टय गुणों का नाश हो जाता है और रह जाता है केवल शुष्क क्रियाकाण्ड का राग या अहंकार । रागद्वेष से तपस्या निरर्थक हो जाती है जैसे- चूल्हें पर कड़ाही में खौलते हुए पानी में हाथ डालने से हाथ जल जाता है, वैसे ही मन-मस्तिष्क रूपी कड़ाह में खौलते हुए राग-द्वेष की स्थिति में तप, त्याग, व्रत, नियम या रत्नत्रयरूप धर्म आदि के भी सत्त्व जल जाते हैं । चूल्हे पर अत्यन्त तपे हुए गर्म तवे पर पानी के छींटे डालते ही छन-छन करके क्षणभर में ही वे जलकर नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही तीव्र राग-द्वेष की स्थिति में थोड़ा-सा भी १. कर्म की गति न्यारी, भा. ८ से भावांश ग्रहण, पृ. २९ For Personal & Private Use Only Jain Education International 1 www.jainelibrary.org

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