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५७८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
अन्त तक चला, जिसके कारण घोर पापकर्म के फलस्वरूप उसकी गति, मति, भव आदि बड़े और मरकर वह नरकगति का मेहमान बना ।
वैदिक परम्परा प्रसिद्ध परशुराम ने क्षत्रियजाति के प्रति तीव्रद्वेषवश २१ बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन बनाया था। उनकी प्रतिज्ञा थी कि एक भी क्षत्रिय - पुत्र इस पृथ्वी पर नहीं रहना चाहिए । उनका यह द्वेष किसी एक - दो क्षत्रियों पर नहीं, अपितु समूची क्षत्रियजाति के प्रति था । १
रोम का क्रूरकर्मा सम्राट नीरो, ट्रांसल्वानिया प्रदेश का नरपिशाच शासक काउंट ड्रोक्युला, अत्यन्त क्रूर एवं कठोर प्रकृति का जिपाजंग (जर्मनी) के सेशनकोर्ट का न्यायाधीश बेनेडिक्ट कार्पेज, हिटलर, मुसोलिनी, चर्चिल, याह्या खांन, चंगेज खां नादिरशाह आदि ऐसे क्रूर नरपिशाच हुए हैं, जिनकी द्वेषबुद्धि प्रचण्ड रूप से सामूहिक नरसंहार करने पर तुल गई थी जिन्हें मानवजाति कभी माफ नहीं कर सकती । २
इसी प्रकार ईसाइयों और मुस्लिमों का कई वर्षों साम्प्रदायिक युद्ध (क्रूजेडो) चला । हिन्दुओं और मुस्लिमों में पारस्परिक साम्प्रदायिक विद्वेष भी चरमसीमा पर पहुँच गया था। इन सब उदाहरणों से सिद्ध होता है कि ऐसे क्रूर, मानवता के द्रोहीजनों में रागभाव तो इने-गिने लोगों पर होता है, किन्तु द्वेषभाव अगणित लोगों पर या समूची जाति, समग्र देश या सारे सम्प्रदाय पर होता है। अनुमानतः ऐसे क्रूर लोगों में राग की मात्रा मुश्किल से १० से २० प्रतिशत होगी, जबकि द्वेष की मात्रा होगी ८० या ९० प्रतिशत । किसी युग में जैनों के प्रति शैवों और वैष्णवों का जबर्दस्त विद्वेष था। उन्होंने यहाँ तक अपने अनुगामियों को द्वेषवश उकसाया'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैन मन्दिरम्।' यदि पागल हाथी पीछे से मारने को आ रहा हो, तब भी जैनमन्दिर (जैनगृह) में प्रवेश न करे । इसी प्रकार शैवों और वैष्णवों में जबर्दस्त विद्वेष फैलाया गया था। कोई भी वैष्णव शैव का या शिव का या सीवण का नाम लेने में कतराता था, और शैव भी वैष्णव या विष्णु का नाम नहीं लेता था । भारतवर्ष में ऐसे साम्प्रदायिक विद्वेष प्रबल प्रमाण में फैलाये गये थे, और अब भी मौके - बेमौके फैलाये जाते हैं।
. निष्कर्ष यह है कि राग की मात्रा की वृद्धि की अपेक्षा द्वेष की मात्रा की वृद्धि अत्यन्त भयानक है। प्रायः राग सीमित रहता है, किन्तु द्वेष बहुत शीघ्र बढ़कर प्रचण्ड दावानल की तरह असीमित भी बन जाता है। दोनों की अति ही खराब है।
१. कर्म की गति न्यारी से भावग्रहण, पृ. २८
२. इन उदाहरणों के विशेष विवरण के लिए देखें - कर्मविज्ञान भा. २ खण्ड ५ में "कर्मफल यहाँ या वहाँ, अभी या बाद में" शीर्षक निबन्ध, पृ. ३३४ से ३३७ तक
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