Book Title: Karm Vignan Part 05
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 599
________________ रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५७९ राग ज्यादा खतरनाक है या द्वेष ? खतरनाक का यहाँ अर्थ है-आत्मा के लिए अधिक हानिकारक। जिस वैभाविक भाव से आत्मा की अधिक हानि हो, उसके गुणों का घात अधिक तीव्र और शीघ्र हो, उसे अधिक खतरनाक समझना चाहिए। आत्मिक हानि होती है-कर्मबन्ध से। जिस जीव में जितने कम या ज्यादा राग-द्वेष होंगे, उसके कर्मबन्ध उतने ही तीव्रमन्द रस के तथा न्यूनाधिक स्थिति के होंगे। अगर किसी के जीवन में राग का प्रमाण अधिक है तो उससे रागजनित कर्मबन्ध अधिक होगा, इसके विपरीत यदि द्वेष का प्रमाण अधिक है, तो द्वेषजनित कर्मबन्ध अधिक होंगे। तीव्र रागवृत्ति से भी तीव्र कर्मबन्ध होता है और तीव्र द्वेषवृत्ति से भी तीव्र कर्मबन्ध होता है। अत: दोनों का तीव्रबन्ध खतरनाक एवं हानिकारक है। फिर भी दोनों की मात्रा का हिसाब लगाने पर यह कहा जा सकता है, कि रागवृत्ति की अपेक्षा द्वेषवृत्ति से आत्मा की हानि ज्यादा है। द्वेषवृत्ति में रस तीव्र होने से कर्मबन्ध गाढ़ रस के एवं दीर्घकालिक स्थिति वाले होते हैं। द्वेषजनित बन्ध में स्थितिबन्ध बहुत लम्बे समय का, तथा अनुभागबन्ध गाढ़ रस वाला होता है। जिसके उदय में आने पर भोगना (वेदन) बहुत ही कटु, नीरस और विषादपूर्ण होता है। द्वेषजनित बन्धन में घातक और क्रूर वृत्ति के कारण व्यापक पैमाने पर हिंसा होती है, मानसिक हिंसा से बुद्धि कठोर जाती है। द्वेषवृत्ति वाले जीव में रौद्रध्यान की तीव्र क्रूर परिणति अधिक रहती है, जिससे उसका मन हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी और संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान से ओत-प्रोत रहता है। उसकी लेश्याएँ अधिकतर अशुभ से अशुभतर बनती जाती हैं। अशुभ लेश्याओं के कारण कर्मबन्ध भी अशुभ-पापकर्म का होता है। . . __राग की अपेक्षा द्वेष शान्त न किया जाए तो अकल्प्य हानि यद्यपि राग भी जीवन में प्रतिक्षण बंधता रहता है, किन्तु उसकी लेश्याएँ इतनी क्रूर; अशुभ और घातक नहीं होतीं। यदि लेश्याएँ अधिक अशुभ न हों तो कर्मबन्ध भी दीर्घकाल की स्थिति वाला नहीं होता। यद्यपि द्वेष जीवन में प्रायः प्रतिदिन नहीं होता, क्योंकि दैनिक जीवन-व्यवहार में द्वेष के तीव्र निमित्त प्रायः नहीं मिलते। वे क्वचित कदाचित् ही मिलते हैं। चूंकि द्वेष निमित्त कारणों के आधार पर खड़ा होता है, इसलिए द्वेष के निमित्त कम मिलने पर द्वेष के अवसर कम ही आते हैं। परन्तु जब भी द्वेष उत्पन्न होता है, तब उसे ज्ञानबल द्वारा स्वयं संवृत (निरुद्ध) न किया जाए, अथवा किसी प्रबल निमित्त द्वारा उसका शमन या दमन न किया जाए तो वह आग में घी डालने की तरह अधिकाधिक बढ़ता जाता है। जैसे- बड़ी आग कभीकभी ही लगती है, किन्तु लगने पर अग्निशमन यंत्र या आग को शान्त करने के अन्य साधन न मिलें तो वह कल्पनातीत हानि करती है। द्वेष भी दाहक और भस्मक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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