Book Title: Karm Vignan Part 05
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 596
________________ ५७६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ नहीं हैं। ऐसा नहीं होता कि राग रागरूप में ही सदा रहे, द्वेषरूप में परिणत न हो। इस तथ्य को हम रागद्वेष के पूर्वोक्त चार भंगों (विकल्पों) के द्वारा भलीभांति स्पष्ट । कर आए हैं। जिन कारणों या निमित्तों को लेकर राग हो सकता है, उन्हीं कारणों या निमित्तों से द्वेष भी हो सकता है। आज जिस व्यक्ति या वस्तु पर राग है, कालान्तर में उसी व्यक्ति या वस्तु पर द्वेष भी हो सकता है। । ___ यद्यपि राग और द्वेष का मूल आधार जीव के अध्यवसाय या परिणाम हैं, योगसार में कहा है- कोई भी पदार्थ या व्यक्ति निश्चयनय की अपेक्षा इष्टं या अनिष्ट नहीं होता। मोह (राग के परिणाम) वश जिसे इष्ट समझ लिया जाता है, वह (जीव.. के परिणामवश) अनिष्ट हो जाता है, और जिसे आज अनिष्ट समझा जाता है, वही कालान्तर में (जीव के परिणाम के अनुसार) इष्ट हो जाता है। धवला में स्पष्ट कहा है कि जीवों की इच्छा के अनुसार वस्तु का स्वभाव नहीं 'बदलता, जीव के परिणामानुसार या रुचि अनुसार वह अच्छा या बुरा माना जाता है। जैसे नीम कितने ही जीवों को कटु होते हुए भी रुचिकर लगता है, कितने ही जीवों को नहीं; किन्तु नीम किसी को रुचिकर होने से वह अपनी कटुता को छोड़कर मधुरता में परिणत : नहीं हो जाता। .. यद्यपि रागद्वेष दोनों परिणामों पर निर्भर हैं, तथापि संसारी जीव प्रायः निमित्ताधीन होने से जैसे-जैसे निमित्त मिलते हैं, वैसे-वैसे ही उनके राग या द्वेष के परिणाम बन जाते हैं। दामाद सास-ससुर को अत्यन्त प्रिय होता है, क्योंकि उसके प्रति रागभाव होता है, किन्तु वही दामाद लड़की को तरह-तरह से यातना देता है, प्रताड़ना करता है, या मारने की धमकी देता है, तो सास-ससुर को अप्रिय हो जाता है, क्योंकि उसके प्रति जो रागभाव था, वह द्वेष में परिणत हो गया है। कभी-कभी निमित्त राग या द्वेष से परिपूर्ण होता है तो सामने वाले व्यक्ति के अध्यवसाय (परिणामादि) भी वैसे ही राग या द्वेष वाले बन जाते हैं। इसलिए सामान्य संसारी जीवों के लिए यही श्रेयस्कर है कि राग-द्वेष के अध्यवसायों से बचने के लिये रागद्वेष के निमित्तों से बचना होगा। जैसे कि दशवैकालिक सूत्र में साधुओं को ब्रह्मचर्य १. (क) कर्म की गति न्यारी, भाग ८, पृ. २७०. (ख) इष्टोऽपि मोहतोऽनिष्टो, भावोऽनिष्टस्तथा परः। न द्रव्यं तत्वतः किंचिदिष्टानिष्टं हि विद्यते॥ -योगसार अ.५, श्लोक ३६ (ग) भिण्णरुचीदो केसिपि जीवाणममहुरो वि सरो (स्वरः) महुरोव्व रुचई त्ति तस्स सरस्स महुरत्तं किण्ण इच्छिज्जदि? ण एस दोसो, पुरिसिच्छादो वत्थु परिणामाणुवलंभा। ण च जिंबो केसि पि रुच्चदि महुरतं पडिवजदे। अव्ववस्थावत्तीदो। -धवला ६/१,९-२, ६८/१०९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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