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रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५७३ सूत्र ग्रहण किये। अपनी प्रकृति संघर्ष के बजाए सहयोग, सेवा और स्नेह की बनाई. तब से धीरे-धीरे उसकी सास के हृदय में परिवर्तन होता चला गया और संवत्सरी पर्व के दिन प्रतिक्रमण के समय 'खामेमि सव्वे जीवा' इस क्षमापनापाठ को पढ़तेपढ़ते अचानक चिन्तनधारा बदली, और अपनी पुत्रवधू भूरीबाई के प्रति जो द्वेषभाव था, वह सहसा रागभाव में-स्नेहभाव में पलट गया। पुत्रवधू से स्वयं चलाकर पिछली भूलों के लिए हृदय से क्षमा मांगी। इस प्रकार परस्पर क्षमा के आदान-प्रदान से मन में जमा हुआ द्वेषभाव का मैल धुल गया; स्नेहसरिता अबाधगति से बहने लगी। यद्यपि द्वेषभाव शीघ्र ही रागभाव में परिवर्तित होना कठिन होता है, किन्तु यह असम्भव नहीं है। इन्सान अपनी इन्सानियत को समझ कर उसे सक्रिय करने के लिये उद्यत हो तो पारिवारिक, जातिगत, राष्ट्रगत, सम्प्रदायगत विद्वेष भी परस्पर भाईचारे, बन्धुत्व या प्रेमभाव में बदल सकता है।
परन्तु स्वार्थसिद्धि के लिए जो दो पक्षों में परस्पर समझौता, सुलह या सम्बन्धसुधार के रूप में जो रागभाव होता है, वह चिरस्थायी नहीं होता, वह स्वार्थभंग होते ही पुनः द्वेषभाव में बदल सकता है।
. चतुर्थ विकल्प : अल्पद्वेष से अधिक द्वेष (४) द्वेष से द्वेष-चौथा विकल्प द्वेष से और अधिक द्वेष का बढ़ना है। कलह किसी छोटी-सी बात पर होता है, वह बढ़ते-बढ़ते ऐसे क्षेत्र में परिवर्तित हो जाता है, कि वह अब उक्त बाते का बतंगड़ बनकर प्रतिष्ठा का सवाल बन जाता है। ऐसे द्वेष में उसकी विभिन्न तीव्र धाराएं जुड़ जाती हैं, कुछ और साथी और उकसाने वाले लोग जुड़ जाते हैं, जिससे द्वेष की मात्रा अत्यन्त बढ़ जाती है। जिस समय बात छोटी-सीधी हो, उस समय द्वेष के कारण उत्पन्न हुए कलह, विवाद, वैमनस्य या क्लेश से. क्षमा मांगने से या परस्पर एक दूसरे के मुद्दे को समझ कर आसानी से शान्त किया जा सकता था। परन्तु उस प्रारम्भिक द्वेष में अब कई गुना द्वेष की वृद्धि होने से वह 'राई का पहाड़' जितना बड़ा और सुदृढ़ हो गया है। ऐसी स्थिति में बीचबिचाव या समझौता करने-कराने वाले निमित्त अनसुने कर दिये जाते हैं, और आदमी मन में गांठ बांधकर प्रतिपक्ष के मन में द्वेष या असन्तोष न भी हो तो भी पक्षीय द्वेषकर्ता तन कर खड़ा हो जाता है-वैर का बदला लेने के लिए। द्वेष की एक छोटी-सी चिनगारी बढ़ते-बढ़ते भयंकर अग्निज्वाला का रूप धारण कर लेती है, जिसे बुझाना या शान्त करना बहुत ही दुष्कर होता है।रे -
१. मानवता, मीठं जगत् भा. ३ (कविवर्य नानचन्द्रजी महाराज) से सारांशग्रहण २. कर्म की गति न्यारी, भा.८, पृ. १९
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