Book Title: Karm Vignan Part 05
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 582
________________ - ५६२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ का साथ-साथ हुआ। इस प्रकार बढ़ते हुए स्नेहराग-भाव के कारण वे अन्तिम नौवें भव में भी दाम्पत्य-सम्बन्ध से जुड़ने वाले थे। दोनों की सगाई (वाग्दान) हो चुकी थी। परन्तु विवाह होने से पूर्व ही नेमिनाथ रागभाव का बन्धन तोड़कर विरक्त बन गए और मुनिमार्ग पर आरूढ़ हो गए। राजीमती इस प्रकार का रागबन्धन अकस्मात् तोड़ देने से पहले तो रागयुक्त हुई, किन्तु फिर सम्यग्ज्ञान का प्रादुर्भाव होने से सांसारिक रागबन्धन को तोड़कर तीर्थंकर नेमिनाथ के पास दीक्षित होकर साध्वी बनी और सदा-सदा के लिए राग-द्वेष के वश होने वाले समस्त कर्म-बन्धन तोड़कर वीतराग, केवली एवं सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गईं। यह है-नौ भवों के रागसम्बन्ध से होने वाली भव-परम्परा का चित्र। (६) इस प्रकार इस अनन्त संसार में अनेक जीवों की राग-परम्परा चलती है। 'उत्तराध्ययन सूत्र' में चित्त और सम्भूति के पांच जन्मों तक मनुष्य और तिर्यञ्च भव में भाई-भाई के राग सम्बन्ध को लेकर साथ-साथ जन्म-मरण का उल्लेख है। परन्तु छठे भव में दोनों का वियोग हो गया। सम्भूति का जीव पूर्वजन्म में किये हुए निदान : (फलाकांक्षा) के कारण अनेक भोगों से सम्पन्न ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बना और चित्त का जीव काम-राग, स्नेहराग और दृष्टिराग, इन तीनों का त्यागकर अनगार बनकर संयमपथ पर आरूढ़ हुआ। जाति-स्मरणज्ञान के कारण दोनों का मिलना तो हुआ, परन्तु ब्रह्मदत्त चित्तमुनि के जीव द्वारा दिये गए उपदेश से भोगों के तीव्रराग-पथ को नहीं छोड़ सका, त्यागपथ पर आना तो उसके लिये दुर्गम हो गया। फलतः भोगों के तीव्ररागवश वह नरक का मेहमान बना और अपनी भवपरम्परा बढ़ा ली, जबकि चित्तमुनि का जीव रागबन्धन को तोड़कर समस्त कर्मों से मुक्त होकर मोक्षगामी बना। यह था-तीव्रराग को दुष्परिणाम और रागत्याग के सुपरिणाम का स्पष्ट चित्र!२ (७) तीव्रकाम-राग से भी नरक-तिर्यंच आदि अनेक दुर्गतियों में मनुष्य भटकता रहता है। मणिरथ राजा अपने छोटे भाई युगबाहु की धर्मपत्नी मदनरेखा पर मोहित हो गया। कामराग की उसमें इतनी तीव्रता थी कि वह छोटे भाई को मारकर मदनरेखा को पाने के लिये लालायित हो उठा। युगबाहु की गर्दन पर विषबुझी तलवार चलाई। युगबाहु के मर जाने के बाद भी मणिरथ राजा मदनरेखा को नहीं पा सका। उक्त तीव्र कामरागवश घोर पापकर्मबन्ध हुआ और रास्ते में ही जहरीले सर्प १. कर्म की गति न्यारी, भा. ८, पृ. ८ से, पृ.८, ९ २. देखें, उत्तराध्ययन सूत्र का १३ वाँ चित्त-सम्भूतीय अध्ययन। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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