Book Title: Karm Vignan Part 05
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 571
________________ ऋणानुबन्ध : स्वरूप, कारण और निवारण ५५१ अशुभड्दय-सूत्रकृतांग सूत्र में नरकविभक्ति के तथा उत्तराध्ययन सूत्र में मृगापुत्र द्वारा वर्णित नरक में परमाधामी (परमाधर्मी) देवों द्वारा दिये जाने वाले दुःखों से नारक जीवों के देवों द्वारा अशुभऋणानुबन्ध के उदयवश प्राप्त दुःखों के वर्णन को 'पढ़-सुनकर रोम-रोम कांप उठता है। ये परमाधामी देव चौथी नरक तक उनके साथ बंधे हुए वैरभाव उदय में आते ही, नीचे उतरकर नारकों को अपार दुःख देते हैं। वे देव उन्हें मारते हैं, उनकी चमड़ी उधेड़ देते हैं, अंग-अंग काट डालते हैं तथा अनेक प्रकार से शारीरिक पीड़ा उत्पन्न करके वे बहुत हर्षित होते हैं। ऐसे परमाधामी देव अम्ब, अम्बरीष, श्याम, सबल आदि भेद से १५ प्रकार के हैं। इसके उपरांत नारकीय जीवों के क्षेत्र वेदना, शीत-उष्ण-वायुस्पर्श-वेदना, पानी पीते समय तीक्ष्ण असिधार के समान तीव्र वेदना तथा अशुभ ऋणानुबन्ध के कारण वैर के उदय से परस्पर आघात-वेदना आदि दुःखों का वेदन होता है। परमाधामी देवों के सिवाय अन्य वेदनाएँ तो सातवीं नरकभूमि तक में तीव्रतर हैं।१ . - ऋणानुबन्ध के उदय में आने पर कर्मों की निर्जरा ... कर्मविज्ञान की दृष्टि से ऋणानुबन्धों के आधार पर ही समस्त सांसारिक जीवों का संसार चलता है, टिकता है। यह बन्ध-परम्परा तब तक चलती है, जब तक ऋण का लेन-देन शेष रहता है। जमा-नामे (जमा-उधार) पासे बराबर हो जाते हैं, अर्थात् किंचित् मात्र भी कर्मरूपी ऋण नहीं रहता, तब जीव मुक्त हो जाता है। . ऋणानुबन्ध रागद्वेष की परिणति पर आधारित है और रागद्वेष के परिणाम निजस्वरूप के अज्ञान पर अवलम्बित हैं तथा इस अज्ञानान्धकार की निवृत्ति ज्ञानरूप प्रकाश से होती है। जब आत्मा में ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, तभी अज्ञानान्धकार का निवारण हो जाता है। उक्त ज्ञान के दबे हुए प्रकाश के प्रकटीकरण का लाभ जिन्होंने अनन्तज्ञान-दर्शन की ज्योति प्रकट की है, उन आत्मज्ञानी-आत्मदर्शी भगवन्तों के पास से ही प्राप्त हो सकता है। आत्मस्वरूप को पूर्णतया उपलब्ध अनन्तज्ञानी पुरुषों का अथवा आत्मतत्त्व प्राप्त सत्पुरुषों के समागम का योग शुभ ऋणानुबन्ध के शुभ उदय से प्राप्त होता है, जिसे ज्ञानी पुरुष महान् पुण्य का उदय कहते हैं। इस प्रकार के शुभ ऋणानुबन्ध का संचय जन्म-जन्म में अच्छे सांसारिक सम्बन्ध सुरक्षित रखते रहने से तथा कम से कम उन भव-भव में सम्बन्धित जीवों के साथ सद्धर्म के प्रति प्रीति एवं श्रद्धा लाकर धर्माराधना करने-कराने से वह उत्पन्न . होता है। इस प्रकार शुभ ऋणानुबन्ध-संचय का बल बढ़ जाने से वह उदय में आकर १. ऋणानुबन्ध से सार-संक्षेप, पृ.८३ से ८७ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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